सार
भारत के कानून और न्याय मंत्री किरण रिजिजू ने एक आर्टिकल लिखा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 27 अक्टूबर, 2022 का दिन भारत में कश्मीर को एकीकृत करने में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गंभीर गलतियों की 75 वीं वर्षगांठ का प्रतीक है।
Kiren Rijiju on Nehru: भारत के कानून और न्याय मंत्री किरण रिजिजू ने एक आर्टिकल लिखा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 27 अक्टूबर, 2022 का दिन भारत में कश्मीर को एकीकृत करने में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गंभीर गलतियों की 75 वीं वर्षगांठ का प्रतीक है। कश्मीर का मसला नेहरू से हुई ये एक ऐसी चूक है, जिसका खामियाजा 75 सालों से भारतवासी अपने खून से चुका रहे हैं। आखिर क्या थीं भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की वो 5 गलतियां, आइए जानते हैं।
1947 में नेहरू ने जम्मू और कश्मीर के एकीकरण का मामला सरदार पटेल को सौंपने के बजाय खुद संभालने का फैसला किया। जबकि, सरदार पटेल ने देश की 500 से ज्यादा रियासतों को भारत में शामिल करवाया था। 1947 से 1949 के दौरान नेहरू ने 5 ऐतिहासिक गलतियां कीं, जिसने न केवल कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय को रोका बल्कि कई तरह के सुरक्षा खतरों के साथ ही भारत में आतंकवाद को भी जन्म दिया। उनके इन फैसलों की वजह से कश्मीर में रहने वाले लोग कई दशकों से इसे भुगत रहे हैं।
गलती नंबर 1 - नेहरू ने विलय का फैसला लेने में बहुत देर की
पिछले 75 सालों से इस ऐतिहासिक झूठ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया कि महाराजा हरि सिंह ने भारत में शामिल होने से मना किया था। हालांकि, खुद नेहरू के भाषणों और चिट्ठियों से ये संकेत मिलता है कि नेहरु के निराशाजनक फैसलों में हुई देरी ने जम्मू-कश्मीर के विलय को लगभग पटरी से उतार दिया। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है, वो ये कि 24 जुलाई 1952 को लोकसभा में एक भाषण में नेहरू ने खुद कहा था कि महाराजा हरि सिंह ने जुलाई 1947 में ही भारत में शामिल होने के लिए संपर्क किया था। हालांकि, नेहरू ने इस मसले पर फैसला लेने में संकोच किया और इसे जानबूझकर एक 'विशेष मामला' बना दिया। दरअसल, नेहरू इस बात पर आंख मूंदकर भरोसा करते थे कि शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर की आवाज हैं। ऐसे में 1947 में कश्मीर विलय के मामले में आगे बढ़ने के लिए नेहरू 'पॉपुलर अप्रूवल' चाहते थे। विभाजन के बाद हुई हिंसा के बाद भी नेहरू जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए कुछ अलग शर्तों को लेकर अड़े रहे। वो चाहते थे कि महाराजा हरि सिंह भारत में विलय से पहले एक अंतरिम सरकार की स्थापना करें और इस अंतरिम सरकार का नेतृत्व शेख अब्दुल्ला को करना चाहिए। 21 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री एमसी महाजन को लिखे एक पत्र में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था।
गलती नंबर 2 : कश्मीर के विलय को अंतिम न मानना
नेहरू ने ये झूठ फैलाया कि जम्मू-कश्मीर का विलय सशर्त और अस्थायी था। उन्होंने जानबूझकर विलय को 'स्पेशल केस' बताया। जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया तो महराजा हरि सिंह ने मदद के लिए अनुरोध किया। इस पर नेहरू के अधीन रक्षा संबंधी कैबिनेट समिति की बैठक हुई। इसमें यह तय किया गया कि महाराजा भारत में शामिल होंगे। इसके बाद भी केंद्र सरकार इस विलय को अंतिम नहीं मानेगी। नेहरू ने यह भी तय किया था कि विलय को लोगों की इच्छा के मुताबिक अंतिम रूप दिया जाएगा। नेहरू कश्मीर को भारत में शामिल करने के लिए कम और अपने 'दोस्त' शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाने के लिए ज्यादा चिंतित थे। 26 अक्टूबर 1947 को नेहरू द्वारा एमसी महाजन को भेजे गए एक नोट में इस बात का जिक्र है।
गलती नंबर 3 : कश्मीर के मुद्दे को UN में ले जाना
1 जनवरी 1948 को, नेहरू ने कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र चार्टर (UN Charter) के तहत यूएनएससी (UNSC) से संपर्क करने का फैसला किया। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप करते हुए भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (UN Commission for India and Pakistan) का गठन किया। पिछले कुछ दशकों में जम्मू-कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों ने भारत की स्थिति को कमजोर कर दिया है। लेकिन सबसे अहम बात ये है कि नेहरू के संयुक्त राष्ट्र में जाने के फैसले का इस्तेमाल पाकिस्तान ने अपने उस दावे को सही ठहराने के लिए किया, जिसमें वो जम्मू-कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र बताता था। नेहरू ने UN में अनुच्छेद 51 के बजाए अनुच्छेद 35 के तहत जाने का फैसला किया, जो कि विवादित भूमि से संबंधित है। जबकि आर्टिकल 51 ने भारतीय क्षेत्र में पाकिस्तान के अवैध कब्जे को उजागर किया है। इसके साथ ही अगर नेहरू ने भारतीय सैनिकों पर भरोसा किया होता और मिलिट्री एक्शन जारी रखने की परमिशन दी होती, तो भारत पाकिस्तानी सैनिकों को और पीछे धकेलने में कामयाब होता और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) बनने से रोकता।
गलती नंबर 4 : नेहरू का जनमत संग्रह पर जोर
यूएनसीआईपी का जनमत संग्रह कराने का सुझाव भारत के लिए बाध्यकारी नहीं है। UNCIP ने खुद इस बात को स्वीकार किया है। 13 अगस्त 1948 को, UNCIP ने तीन भागों के साथ एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसे हर हाल में पूरा किया जाना था।
पार्ट 1: युद्धविराम (Ceasefire)
पार्ट 2: समझौता और पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी
पार्ट 3: जनमत संग्रह (Plebiscite)
1 जनवरी, 1949 को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम किया गया था। हालांकि, पाकिस्तान ने पूरी तरह से अपने सैनिकों को वापस नहीं बुलाया, जिसका मतलब था कि पार्ट II यानी 'समझौता और पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी' कभी पूरा ही नहीं हुआ। UNCIP ने 23 दिसंबर, 1948 को इस बात का उल्लेख किया था कि अगर पाकिस्तान पार्ट 1 और 2 को लागू करने में विफल रहता है, तो जरूरी नहीं कि भारत इस प्रस्ताव को स्वीकार करे। इस मामले पर UNCIP की स्पष्ट शर्तों के बावजूद इस झूठ का प्रचार किया गया कि भारत कश्मीर मसले पर जनमत संग्रह कराने के लिए बाध्य है। जनमत संग्रह का तो सवाल ही नहीं उठना चाहिए था क्योंकि पाकिस्तान ने UNCIP के प्रस्तावों का पालन ही नहीं किया और अपने सैनिकों को वापस नहीं बुलाया।
गलती नंबर 5 : आर्टिकल 370 को जन्म दिया
कश्मीर के प्रोविजनल इंटीग्रेशन (अनंतिम एकीकरण) और छूट के वादे ने आर्टिकल 306A को जन्म दिया, जो बाद में 370 बन गया। अनुच्छेद 306A (अनुच्छेद 370) के अलग-अलग प्रारूप एन गोपालस्वामी अय्यंगर और शेख अब्दुल्ला के बीच कई दौर की बातचीत के बाद तैयार किए गए थे। इस आर्टिकल के अंतिम मसौदे में शेख अब्दुल्ला की विभिन्न मांगों और छूट का जिक्र था। आर्टिकल 370 पर एक चर्चा में संयुक्त प्रांत के एक मुस्लिम प्रतिनिधि मौलाना हसरत मोहानी ने जम्मू-कश्मीर को विशेष रियायतों के विस्तार पर सवाल उठाते हुए इसे भेदभावपूर्ण भी बताया था।
2019 में पीएम मोदी ने सुधारी गलतियां :
2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्टिकल 370 को खत्म कर इन गलतियों को काफी हद तक सुधारा है। बता दें कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता मिली थी। इसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य विधानमंडल को 'स्थायी निवासी' परिभाषित करने और नागरिकों को विशेषाधिकार प्रदान करने का अधिकार देता था।
नोट : (किरन रिजिजू का यह आर्टिकल रिपब्लिक भारत ने पब्लिश किया है)
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