सार
राजस्थान में दुनिया की इकलौती ऐसी लड़ाई थी, जो तरबूजे के लिए लड़ी गई थी। इस युद्ध को इतिहास के पन्नों में मतीरा की राड़ के नाम से याद किया जाता है।
राजस्थान मतीरा की राड़। इस वक्त दुनिया में दो जगह भयानक युद्ध जारी है। एक तरफ जहां रूस और यूक्रेन बीते 2 सालों से एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बीते 7 महीने से इजरायल और हमास के बीच खूनी जंग छिड़ी हुई है। हालांकि, इन दोनों युद्ध के मायने अलग-अलग है, दोनों के कारण अलग है, लेकिन एक चीज सामान्य है कि दोनों पक्षों के लोगों की मौत हो रही है। हालांकि, आज से 375 साल पहले 1644 में एक ऐसी जंग लड़ी गई थी, जिसका कारण बहुत ही बेतुका और समझ के परे लगता है। ये युद्ध मात्र एक फल के लिए लड़ी गई थी, जिसमें हजारों सैनिकों की मौत हो गई थी।
राजस्थान में दुनिया की इकलौती ऐसी लड़ाई थी, जो तरबूजे के लिए लड़ी गई थी। इस युद्ध को इतिहास के पन्नों में मतीरा की राड़ के नाम से याद किया जाता है,क्योंकि राजस्थान में तरबूज को कहीं-कहीं मतीरा कहा जाता है, जबकि झगड़े को राड़ कहा जाता है। हालांकि, इस युद्ध से जुड़ा ज्यादा तथ्य सामने निकलकर सामने नहीं आया है। इसके बावजूद राजस्थान के लोग आज भी इस युद्ध को मतीरे की राड़ के नाम से जानते है और इसका जिक्र करते हैं।
तरबूजे की लड़ाई में पिस गए दो पक्ष
तरबूजे की लड़ाई में बीकानेर और नागौर के लोग शामिल थे। बीकानेर की सेना का नेतृत्व रामचंद्र मुखिया ने किया था जबकि नागौर की सेना का नेतृत्व सिंघवी सुखमल ने किया था। 1644 में लड़े गए युद्ध में बीकानेर राज्य का सिलवा गांव और नागौर राज्य का जखनिया गांव मुख्य बिंदु थे। दोनों गांव आपस में सटे हुए थे। बीकानेर के गांव में एक तरबूज का पौधा उग गया, लेकिन उसका फल नागौर राज्य की सीमा से सटे जखनिया गांव में चला गया। इसके बाद नागौर राज्य के लोगों ने कहा कि ये तरबूज हमारी सीमा में है तो ये हमारा हुआ, जबकि बीकानेर के लोगों ने कहा कि पेड़ हमारे तरफ लगा हुआ था तो ये हमारा हुआ। इसी विवाद के बाद दोनों पक्षों के बीच खूनी झड़प हो गई और हजारों सैनिकों की जान चली गई। सबसे मजे की बात ये थी कि इस युद्ध के बारे में दोनों राज्यों के राजाओं को भी जानकारी नहीं थी।
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