भारत में स्लीपर बसें बार-बार आग की घटनाओं से मौत का जाल बन रही हैं। IOCL के पूर्व चेयरमैन श्रीकांत वैद्य ने कहा कि इनका डिज़ाइन जानलेवा है और इन्हें बेहतर नहीं बल्कि बैन किया जाना चाहिए। चीन ने किया, भारत कब करेगा?
नई दिल्ली। भारत में स्लीपर बसें लंबे समय से "आरामदायक सफर" का प्रतीक मानी जाती रही हैं। रात में सोते-सोते मंज़िल तक पहुंच जाने का सपना... लेकिन हकीकत इससे कहीं ज़्यादा डरावनी है। इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL) के पूर्व चेयरमैन श्रीकांत एम वैद्य ने इस मुद्दे पर एक ऐसा बयान दिया है, जिसने पूरे देश को सोचने पर मजबूर कर दिया है-“स्लीपर बसों को बेहतर नहीं, बल्कि पूरी तरह बैन कर देना चाहिए। उनका डिज़ाइन ही मौत का जाल है।”
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL) के पूर्व चेयरमैन श्रीकांत एम वैद्य ने इस मुद्दे पर खुलकर कहा है कि इन बसों को “बेहतर” नहीं बल्कि “बैन” किया जाना चाहिए। उन्होंने अपनी हालिया LinkedIn पोस्ट में लिखा “आप आग के जाल को रेगुलेट नहीं कर सकते। आप उसे सिर्फ़ हटा सकते हैं।”
अक्टूबर के हादसे ने हिला दिया देश-क्या ये महज़ बदकिस्मती थी?
श्रीकांत वैद्य ने अपनी लिंक्डइन पोस्ट में लिखा कि अक्टूबर में ही दो स्लीपर बस हादसों में 41 लोगों की मौत हो गई -19 आंध्र प्रदेश के कुरनूल में और 20 ग्रामीण राजस्थान में। पिछले एक दशक में 130 से ज़्यादा लोग स्लीपर बसों में जलकर मर चुके हैं, और ज्यादातर यात्री सोए हुए होते हैं, यानी हादसे के पहले 20 सेकंड में वे भाग नहीं पाते। श्रीकांत वैद्य का कहना है कि यह कोई “एक्सीडेंट” नहीं, बल्कि इंजीनियरिंग की नाकामी (Engineering Failure) है।
डिज़ाइन का फेल्योर: क्यों स्लीपर बसें असली ‘फायर ट्रैप’ हैं?
- स्लीपर बसों का डिज़ाइन खुद एक खतरा है।
- हॉरिजॉन्टल घेरा + संकरे रास्ते + बंद एग्जिट = मौत का रास्ता।
- भीतर के ज्वलनशील इंटीरियर आग को तेजी से फैला देते हैं।
- अधिकतर बसों में फायर एक्सटिंग्विशर गायब या पहुंच से बाहर होते हैं, और ज़्यादा भीड़भाड़ के कारण हिलना-डुलना भी मुश्किल हो जाता है।
- ज़्यादा सीटें और कम स्पेस यात्रियों को फंसा देती हैं
- यानी एक बार आग लगने के बाद, पहले 20–30 सेकंड में बाहर निकलना लगभग असंभव हो जाता है।
जब दुनिया ने बैन लगाया तो भारत क्यों पीछे है?
श्रीकांत वैद्य ने बताया कि:
- चीन ने 2012 में स्लीपर बसों पर पूरी तरह से बैन लगाया।
- वियतनाम ने अपने सुरक्षा कोड और रेस्क्यू सिस्टम को दोबारा लिखा।
- जर्मनी में स्लीपर लेआउट पर सख्त सीमाएं हैं।
लेकिन भारत?
- भारत हर हादसे के बाद पोस्टमॉर्टम करता है-रोकथाम नहीं।
- सिस्टम की कमज़ोरी: 78% बसें प्राइवेट हाथों में
- भारत में करीब 16 लाख बसें चलती हैं, जिनमें से 78% छोटे प्राइवेट ऑपरेटर चलाते हैं -कई के पास पांच से भी कम बसें हैं।
- ऐसे में सुरक्षा की मॉनिटरिंग लगभग असंभव है।
- कम पब्लिक ट्रांसपोर्ट और बढ़ते मुनाफाखोर ऑपरेटरों ने हालात को और खतरनाक बना दिया है।
- अवैध वायरिंग, ओवरलोडिंग और बिना सर्टिफिकेशन वाली बसें सड़कों पर दौड़ रही हैं -यात्रियों की जान दांव पर लगाकर।
“आप आग के जाल को रेगुलेट नहीं कर सकते, उसे हटाना होगा”
- श्रीकांत वैद्य का साफ़ कहना है कि “आप आग के जाल को रेगुलेट नहीं कर सकते। आप उसे सिर्फ़ हटा सकते हैं।”
- उनका सुझाव है कि भारत को अब स्लीपर बसों पर पूर्ण प्रतिबंध (Complete Ban) लगाना चाहिए।
- क्योंकि जब तक ये बसें सड़कों पर हैं, तब तक हर रात का सफर एक रिस्क है-एक लॉटरी, जिसमें इनाम ‘बच जाना’ है।
समाधान: सुधार नहीं, बैन ही ज़रूरी
- श्रीकांत वैद्य का साफ कहना है- “बहुत ज़्यादा गलत डिज़ाइन के लिए उतनी ही सख्त कार्रवाई चाहिए।”
- स्लीपर बसें जितनी आरामदायक लगती हैं, उतनी ही जानलेवा साबित हो रही हैं।
- अगर चीन और वियतनाम जैसे देश ऐसे डिज़ाइन को बैन कर सकते हैं,
- तो भारत क्यों नहीं?
रात की यात्रा-मंज़िल या मौत का इंतज़ार?
- रात की बस यात्रा एक वादा होनी चाहिए-“सुबह सुरक्षित पहुंचने” का,
- न कि “जिंदा बच निकलने” की लॉटरी।
- अब वक्त आ गया है कि सरकार स्लीपर बसों पर बैन लगाए और नए, सुरक्षित डिजाइन को अनिवार्य बनाए।
- सांत्वना का वक्त खत्म हो चुका है-अब एक्शन का समय है।
