सार
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को यानी दिवाली के दूसरे दिन घर-घर में प्रतीकात्मक रूप से गोवर्धन पूजा की जाती है। इस बार ये पर्व 28 अक्टूबर, सोमवार को है।
उज्जैन. गोवर्धन पर्वत महाभारत काल की निशानी है जो मथुरा के पास स्थित है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने गोकुल-वृंदावन के लोगों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए प्रेरित किया था। तभी से भक्तों द्वारा इस पर्वत की पूजा की जा रही है। इस पर्वत को तिल-तिल कम होने का शाप एक ऋषि ने दिया था, इसी कारण महाभारत काल की ये निशानी घटती जा रही है। मथुरा राजधानी दिल्ली से करीब 180 किमी दूर स्थित है। दिल्ली और मथुरा पहुंचने के लिए सभी बड़े शहरों से आवागमन के कई साधन आसानी से मिल जाते हैं। जानिए इस पूजनीय पर्वत से जुड़ी खास बातें...
इस पर्वत की पूजा करने से पूरी होती हैं मनोकामनाएं
आज भी ऐसी मान्यता है कि मथुरा के पास स्थित गोवर्धन पर्वत की पूजा करने वाले भक्तों की सभी मनोकमनाएं पूर्ण होती हैं और यहां से कोई भी खाली नहीं लौटता है। इसी वजह से यहां हमेशा ही भक्तों का तांता लगा रहता है। गोवर्धन पर्वत यानी गिरिराज जी की परिक्रमा का विशेष महत्व है। जन्माष्टमी पर बड़ी संख्या में भक्त यहां पहुंचते हैं। गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई आज काफी कम दिखाई देती है, लेकिन हजारों साल पहले यह बहुत ऊंचा और विशाल पर्वत था। इस पर्वत की ऊंचाई लगातार घट रही है, इस संबंध में शास्त्रों एक कथा बताई गई है।
ये कथा है प्रचलित
- प्राचीन समय में तीर्थयात्रा करते हुए पुलस्त्यजी ऋषि गोवर्धन पर्वत के समीप पहुंचे तो इसकी सुंदरता देखकर वे मंत्रमुग्ध हो गए तथा द्रोणाचल पर्वत से निवेदन किया कि मैं काशी में रहता हूं। आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए, मैं उसे काशी में स्थापित कर वहीं रहकर पूजन करुंगा।
- द्रोणाचल पुत्र के लिए दुखी हो रहे थे, लेकिन गोवर्धन पर्वत ने ऋषि से कहा कि मैं आपके साथ चलूंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है। आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा। पुलस्त्यजी ने गोवर्धन की यह बात मान ली। गोवर्धन ने ऋषि से कहा कि मैं दो योजन ऊंचा और पांच योजन चौड़ा हूं। आप मुझे काशी कैसे ले जाएंगे?
- तब पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि मैं अपने तपोबल से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊंगा। तब गोवर्धन पर्वत ऋषि के साथ चलने के लिए सहमत हो गए। रास्ते में ब्रज आया, उसे देखकर गोवर्धन की स्मृति जागृत हो गई और वह सोचने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण-राधाजी के साथ यहां आकर बाल्यकाल और किशोरकाल की बहुत सी लीलाएं करेंगे।
- यह सोचकर गोवर्धन पर्वत पुलस्त्य ऋषि के हाथों में और अधिक भारी हो गया। जिससे ऋषि को विश्राम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके बाद ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को ब्रज में रखकर विश्राम करने लगे। ऋषि ये बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को कहीं रखना नहीं है।
- कुछ देर बाद ऋषि पर्वत को वापस उठाने लगे लेकिन गोवर्धन ने कहा कि ऋषिवर अब मैं यहां से कहीं नहीं जा सकता। मैंने आपसे पहले ही आग्रह किया था कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। तब पुलस्त्यजी उसे ले जाने की हठ करने लगे, लेकिन गोवर्धन वहां से नहीं हिला।
- तब ऋषि ने उसे श्राप दिया कि तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया, अत: आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता जाएगा। फिर एक दिन तुम धरती में समाहित हो जाओगे। तभी से गोवर्धन पर्वत तिल-तिल करके धरती में समा रहा है। कलियुग के अंत तक यह धरती में पूरा समा जाएगा।
- भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त कलाओं के साथ द्वापर में इसी पर्वत पर भक्तों को मुग्ध करने वाली कई लीलाएं की थी। इसी पर्वत को इन्द्र का मान मर्दन करने के लिए उन्होंने अपनी सबसे छोटी उंगली पर तीन दिनों तक उठा कर रखा था। इसी प्रकार सभी वृंदावन वासियों की रक्षा इंद्र के कोप से की थी।