आनंद मोहन ने रघुवंश प्रसाद सिंह की पुण्यतिथि पर विवादित बयान देकर बिहार की राजनीति में नया भूचाल ला दिया। उन्होंने कहा कि ‘भूरा बाल’ यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला जातियां ही तय करेंगी कि राज्य की सत्ता किसके हाथ में होगी।

पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नजदीक आते ही राजनीतिक गलियारों में सियासी सरगर्मी बढ़ती जा रही है। इस बीच बाहुबली नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन ने मुजफ्फरपुर के होटल लिच्छवी में आयोजित रघुवंश प्रसाद सिंह की पांचवीं पुण्यतिथि सभा में एक विवादित बयान देकर बिहार की राजनीति में नया हलचल पैदा कर दी है।

आनंद मोहन ने कहा कि बिहार के सत्ता के सिंहासन पर कौन बैठेगा, इसका फैसला ‘भूरा बाल’ ही करेगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘भूरा बाल’ का अर्थ है भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला जातियां। मोहन ने कहा कि चाहे राजनीति में कोई चिराग पासवान से लड़ रहा हो, कोई जीतन राम मांझी से, कोई नीतीश कुमार से या लालू प्रसाद यादव से, लेकिन अंततः निर्धारण ‘भूरा बाल’ का होगा।

उन्होंने ‘भूरा बाल खत्म करो’ के नारे को लेकर चुप्पी साधने वालों को चुनौती दी और कहा कि लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने वाले और जनता को कैद करने वाले देश नहीं चला सकते। आनंद मोहन ने 1975 के आपातकाल का भी जिक्र करते हुए कट्टरता और बिखराव को समाजवाद के लिए खतरा बताया। उन्होंने कहा कि कट्टर मुसलमानों ने बांग्लादेश में और कट्टर हिंदुओं ने नेपाल में समाजवादी व्यवस्थाओं को कमजोर किया है।

आनंद मोहन ने गांधी और उनके हत्यारे गोडसे के नाम पर चर्चा करते हुए कहा कि आज सावरकर की प्रतिमा बनाई जा रही है, जो चिंताजनक है। मोहन का यह बयान बिहार की गहरी जातिगत राजनीति और सामाजिक समीकरणों की झलक है जहां सवर्ण वर्ग का ‘भूरा बाल’ नाम से निर्णायक प्रभाव माना जाता है।

पूर्व सांसद ने रघुवंश प्रसाद सिंह को याद करते हुए कहा कि वे सामाजिक विचारधारा पर आधारित नेता थे, जिनका राजनीति में जातिगत कट्टरवाद से कोई वास्ता नहीं था। उन्हें दुखी मन से समाज सेवा करते हुए दुनिया छोड़नी पड़ी।

क्या है "भूरा बाल"?

"भूरा बाल" शब्द मुख्यतः बिहार के राजनीतिक समीकरण में चार प्रमुख उच्च जातियों - भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (व्यापारी समुदाय) को संदर्भित करता है। ऐतिहासिक रूप से, ये जातियाँ बिहार में सत्ता, सामाजिक शक्ति और आर्थिक प्रभाव के केंद्र में रही हैं। आज़ादी के बाद, बिहार की राजनीति और प्रशासन में इन जातियों का दबदबा शुरुआती दो दशकों तक कायम रहा। 1960-70 के दशक में बिहार की सत्ता मुख्यतः इन्हीं उच्च जातियों के बुजुर्गों के हाथ में थी। इस दौरान मुख्यमंत्री पद पर भी अधिकांशतः इनके प्रतिनिधि ही आसीन रहे। इन जातियों को "भूरा बाल" कहकर यह संकेत दिया गया कि यह समूह राज्य की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की मुहर है।