30 नवंबर 1997 को बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे में रणवीर सेना ने 58 दलितों की हत्या कर दी, जिनमें 27 महिलाएँ और 16 बच्चे थे। यह जातीय नरसंहार बिहार की राजनीति और सामाजिक नफरत का प्रतीक बना। 

30 नवंबर, 1997 की रात…जहां बाकी दुनिया नींद में थी, वहीं बिहार के जहानाबाद ज़िले के एक छोटे से गांव लक्ष्मणपुर बाथे में इंसानियत अपनी आखिरी सांसें गिन रही थी। सोन नदी के किनारे बसे इस छोटे से गांव में उस रात जो हुआ, उसने पूरे देश को हिला दिया था, 58 निर्दोष लोगों की हत्या, जिनमें 27 महिलाएं और 16 बच्चे शामिल थे। वो रात सिर्फ एक नरसंहार नहीं थी, वो बिहार की जातीय राजनीति, सामाजिक नफरत और टूटी हुई व्यवस्था का खौफनाक प्रतीक थी।

रणवीर सेना की बंदूकें और दलितों का गांव

लक्ष्मणपुर बाथे, गंगा नदी के किनारे बसा दलितों का बस्ती-प्रधान गांव था। आसपास के ऊँची जातियों के गांवों के साथ हमेशा तनाव रहता था। ज़मीन, मजदूरी और प्रतिष्ठा के सवालों पर। उस दौर में बिहार में MCC (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) और रणवीर सेना के बीच खुली जंग चल रही थी। एक तरफ भूमिहीन मजदूर और दलित थे, जो MCC का समर्थन करते थे, दूसरी ओर भूमिहार किसानों की सशस्त्र सेना, रणवीर सेना, जो "बदले" की भाषा बोलती थी।

30 नवंबर की उस सर्द रात, रणवीर सेना के लगभग 100 से ज्यादा सशस्त्र सदस्य बाथे गांव में घुसे। उनके पास देशी रायफलें, बंदूकें और गोलीबंद जिंदा नफरत थी। पहले उन्होंने पुल पार किया, गांव को चारों तरफ से घेरा, और फिर शुरू हुआ खून का खेल।

16 बच्चों की चीखें और 27 औरतों की चुप्पी

रात के करीब 11 बजे गोलीबारी की आवाज़ें गूंजने लगीं। लोग भागे, कुछ ने दरवाजे बंद किए, लेकिन गोलियों ने किसी की भी दीवार नहीं मानी। एक-एक कर 27 महिलाओं और 16 बच्चों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। कई घरों में आग लगा दी गई। गांव में अगले दिन सिर्फ धुआं, राख और 58 लाशें बची थीं। मरने वालों में कोई अपराधी नहीं था। सिर्फ मजदूर, किसान, बूढ़े और बच्चे, जिनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वे “दलित” थे और “MCC के इलाके” में रहते थे।

16 को फांसी, फिर सब बरी

इस घटना के बाद बिहार में भूचाल आ गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में इसे “जंगलराज” की सबसे बड़ी विफलता बताया गया। राज्य सरकार ने CBI जांच से इनकार किया और पटना सेशन कोर्ट में केस चला। वर्ष 2010 में निचली अदालत ने 16 दोषियों को फांसी की सज़ा और 10 को आजीवन कारावास सुनाया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। 2013 में पटना हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया। 58 लाशों का कोई गवाह नहीं बचा, कोई प्रमाण नहीं मिला, और अदालत ने कहा, “सबूत नहीं हैं।” बाथे के बचे लोग रो पड़े कि सबूत नहीं पर लाशें तो हैं साहब।

याद कर आज भी दाहाल जाता है ग्रामीणों का दिल

आज भी जब कोई लक्ष्मणपुर बाथे पहुंचता है, तो गांव में सन्नाटा बोलता है। वो ईंट की दीवारें, जिन पर कभी खून के निशान थे, अब धूल में मिल गई हैं। लेकिन बुजुर्गों की आंखों में आज भी उस मंजर को याद कर एक खौफ घर कर जाता है। इस नरसंहार में मारे गए लोगों कि वहां कोई मूर्ति नहीं, कोई स्मारक नहीं। बस एक टूटा हुआ पत्थर है, जिस पर 58 नाम लिखे हैं, जिनके लिए “न्याय” सिर्फ किताब का शब्द बन गया।

बिहार की सियासत में जिंदा है बाथे

हर चुनाव में लक्ष्मणपुर बाथे की बात होती है। राजनीतिक पार्टियां इसे कभी “दलितों के खिलाफ साजिश” कहती हैं, तो कभी “जंगलराज की याद”। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस ज़मीन पर 58 लोग मारे गए, वहां अब भी गरीबी, डर और बेरोजगारी की वही कहानी है। वो गांव आज भी बिजली और सड़क की कमी से जूझ रहा है, पर “न्याय” की उम्मीद अब किसी को नहीं।