बिहार चुनाव 2025: बिहार में 17-18% मुस्लिम आबादी के बावजूद विधानसभा में केवल 19 सीटें हैं। इसके मुख्य कारण जातिगत राजनीति, दलों की टिकट रणनीति, सामाजिक पिछड़ापन और संगठनात्मक कमजोरी हैं, जो उनके प्रतिनिधित्व को सीमित करते हैं।
पटनाः बिहार में मुसलमान आबादी का प्रतिशत लगभग 17-18 प्रतिशत है, जो राज्य की कुल जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा बनता है। इसके बावजूद मौजूदा विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व मात्र 19 सीटों तक सीमित है। यह आंकड़ा लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौजूद असमानता की ओर इशारा करता है और कई गंभीर सवाल खड़े करता है। क्या यह सिर्फ राजनीतिक समीकरणों का परिणाम है, या सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और संगठनात्मक कमजोरी की वजह से मुसलमानों की आवाज़ विधानसभा तक नहीं पहुंच पा रही है? इन सवालों की तह तक जाने पर कई परतें सामने आती हैं।
जाति आधारित राजनीति का असर
बिहार की राजनीति पर जाति और समुदाय आधारित समीकरणों का गहरा प्रभाव है। मुसलमान समाज में भी कई जातीय वर्ग मौजूद हैं, जैसे पसमांदा, शेख, कुरैशी, सिद्दीकी आदि। राजनीतिक दल इन वर्गों को समझते हुए उन्हें अलग-अलग वोट बैंक की तरह देखते हैं, लेकिन एक समग्र राजनीतिक आवाज़ के तौर पर उन्हें जगह नहीं देते। कई बार मुस्लिम वोटों का बिखराव होता है, जिससे उनका प्रभाव सीटों तक नहीं पहुँच पाता। इसका परिणाम यह है कि जातिगत समीकरणों के चलते उनकी संख्या और समाज में प्रभाव होते हुए भी प्रतिनिधित्व सीमित रह जाता है।
चुनावी रणनीति और टिकट वितरण
राजनीतिक दल टिकट वितरण में वोट बैंक की गणना को प्राथमिकता देते हैं। एनडीए, महागठबंधन या अन्य दल अपने परंपरागत समीकरणों के आधार पर ऐसे उम्मीदवारों को आगे बढ़ाते हैं, जिनकी जातीय पहचान उन्हें निश्चित जीत दिला सकती है। ऐसे में मुसलमान उम्मीदवारों को सीमित सीटें दी जाती हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि कई दल मुस्लिम समाज को प्रतीकात्मक रूप से शामिल करते हैं, लेकिन उन्हें नीति निर्माण और नेतृत्व में पर्याप्त स्थान नहीं मिलता।
सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन
मुसलमान समाज का बड़ा हिस्सा आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ है। गरीब और कम पढ़े-लिखे वर्गों की राजनीतिक भागीदारी सीमित हो जाती है। सरकारी योजनाओं का लाभ भी इन तक पूरी तरह नहीं पहुँचता। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे उनकी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने में बाधा बनते हैं। इसके चलते उनकी सामाजिक स्थिति का असर विधानसभा में कम भागीदारी के रूप में दिखता है।
संगठनात्मक कमजोरी
मुसलमानों की राजनीतिक संगठन क्षमता सीमित है। व्यापक नेतृत्व का अभाव, संसाधनों की कमी और राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं में हाशिए पर रह जाना उन्हें निर्णय प्रक्रिया से दूर कर देता है। कई बार मुसलमान केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होते हैं, जबकि उनकी जमीनी समस्याएँ उठाने वाला कोई स्थायी मंच नहीं बन पाता।
