अररिया जिले की रानीगंज विधानसभा सीट पर महिलाओं की मतदाता संख्या और भागीदारी पुरुषों से ज्यादा है, लेकिन पिछले 30 साल में कोई महिला विधायक नहीं बनी। जानिए इसकी वजहें और आगामी चुनावों में बदलाव की संभावनाएँ।
पटनाः अररिया जिले की रानीगंज विधानसभा सीट हर चुनाव में 'आधी आबादी' की बढ़ती भागीदारी का सुबूत देती आई है। यहां महिलाओं की मतदाता संख्या ही नहीं, मतदान प्रतिशत भी पुरुषों से हमेशा ज्यादा रहता है। चुनाव आयोग के 2020 के आंकड़ों के अनुसार, रानीगंज में 3,36,020 मतदाताओं में 1,61,414 महिलाएं थीं। मतदान में 86,565 महिलाओं ने हिस्सा लिया। यह पुरुष वोटरों (74,238) से कहीं ज्यादा है। इसके बावजूद, पिछले 30 वर्षों में यहां सिर्फ पुरुष विधायक चुने जाते रहे हैं।
शांति देवी के बाद महिलाओं की हार
रानीगंज के इतिहास में महिला नेतृत्व की सबसे मजबूत पहचान रही हैं शांति देवी। 1990 और 1995 में जनता दल के टिकट पर चुनाव जीतने वालीं शांति देवी न केवल विधायक बनीं, बल्कि बिहार सरकार में मंत्री पद तक पहुंचीं। उनके बाद, हजारों महिलाओं ने रानीगंज में मतदान किया पर कोई महिला फिर विधायक नहीं बन सकी। चुनावी मैदान में महिलाएं भले जी-जान से जुटीं, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के टिकट या स्थानीय समीकरण ने पुरुष उम्मीदवारों को ही आगे रखा।
जातीय और राजनीतिक समीकरण
रानीगंज विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है और कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी जैसी पार्टियों का यहां हमेशा कड़ा मुकाबला रहा है। 1957 से 1985 तक कांग्रेस का दबदबा रहा, यहां कांग्रेस उम्मीदवारों को कुल 5 बार जीत मिली। भाजपा ने तीन बार, जेडीयू और जनता दल ने दो-दो, आरजेडी, जनता पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवारों ने एक-एक बार यहां जीत दर्ज की। 2000 के बाद से यहां भाजपा और फिर जदयू का पलड़ा भारी रहा है। 2020 में जदयू के अचमित ऋषिदेव ने यह सीट केवल 2,304 वोटों से निकटतम प्रतिद्वंदी को हराकर बनाई रखी।
लोकतंत्र में महिलाओं की उलझन
संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है, लेकिन जब बात नतीजों की आती है तो वे सिर्फ मतदान तक सीमित रह जाती हैं। यह विडंबना और भी बड़ी हो जाती है जब राजनीति में महिलाओं की दावेदारी और लाभार्थिता या तो जातीय समीकरण में उलझ कर रह जाती है, या राजनीतिक दलों की प्राथमिकता की सूची में कहीं पीछे छूट जाती है।
स्थानीय मुद्दे
रानीगंज विधानसभा क्षेत्र का बड़ा हिस्सा ग्राम पंचायतों में बंटा है। यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और रोजगार जैसे स्थानीय मुद्दे हमेशा असर रखते हैं। महिलाओं से जुड़ी अधिकांश समस्याएं आज भी गंभीर बनी हुई हैं। लेकिन इनका मजबूती से हल तभी निकल सकता है जब राजनीतिक नेतृत्व में महिला प्रतिनिधित्व भी बराबरी से दिखे। महिलाओं के बढ़ते वोट प्रतिशत ने भी उभरती पीढ़ी में नया आत्मविश्वास भरा है कि शायद अगली बार उनकी हिस्सेदारी की बात सत्ता तक पहुंचे।
क्या होगा बदलाव?
बदलते बिहार में रानीगंज की महिलाओं की सामाजिक भागीदारी नई कहानी लिख रही है। क्या 2025 के चुनाव के साथ महिला मतदाता 'निर्णायक' से आगे बढ़कर 'विजेता' भी बन पाएंगी? या फिर अब भी जीत की कुर्सी पर पुरुषों का ही एकछत्र राज रहेगा? यह सवाल न सिर्फ रानीगंज बल्कि पूरे बिहार के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए विचारणीय है।
