बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले उन 9 सीटों पर सबकी नजर है जो मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक विरासत से जुड़ी हैं। हरनौत से राघोपुर तक जानिए किन नेताओं के परिवारों का प्रभाव मतदाताओं के फैसले को प्रभावित करेगा।
पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तैयारियां तेज होने के साथ ही उन सीटों पर नजरें टिकी हैं जो प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक विरासत का प्रतीक रही हैं। ये वे सीटें हैं जहां से कभी मुख्यमंत्री खुद चुनाव जीते या फिर उनके परिवार की सियासी जड़ें गहरी हैं। हरनौत से लेकर राघोपुर तक, फुलपरास से नौतन तक की इन 9 सीटों का हर चुनाव केवल विधायक चुनने का नहीं बल्कि एक राजनीतिक परंपरा को आगे बढ़ाने का भी होता है।
नीतीश कुमार का गढ़: हरनौत की महत्ता और निशांत की संभावित एंट्री
नालंदा जिले की हरनौत सीट बिहार की राजनीति में विशेष स्थान रखती है। यह न केवल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा की शुरुआत का स्थान है, बल्कि जेडीयू का अभेद्य किला भी मानी जाती है। पिछले आठ विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार या उनकी पार्टी के उम्मीदवार यहाँ से अजेय रहे हैं। फिलहाल जेडीयू के हरि नारायण सिंह तीन बार लगातार यहाँ से विजयी हुए हैं।
इस बार हरनौत सीट पर सबसे बड़ी चर्चा नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार की संभावित राजनीतिक एंट्री को लेकर है। अगर निशांत राजनीति में सक्रिय होते हैं तो हरनौत से उनकी उम्मीदवारी पर जेडीयू विचार कर सकती है। हालांकि अभी तक न तो पार्टी और न ही निशांत की ओर से कोई औपचारिक संकेत मिला है।
लालू परिवार की विरासत: राघोपुर और दानापुर
राघोपुर सीट राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत का प्रतीक है। 1995 में लालू प्रसाद ने यहाँ से जीत दर्ज की थी और अब यह उनके बेटे तेजस्वी यादव की परंपरागत सीट बन चुकी है। 2020 में भी तेजस्वी यहीं से विजयी हुए थे और इस बार भी उनके यहीं से चुनाव लड़ने की प्रबल संभावना है।
दानापुर सीट भी लालू प्रसाद की विरासत का हिस्सा है। वर्तमान में राजद के रीतलाल यादव यहाँ से विधायक हैं, जो 2020 में जेल में बंद होने के बावजूद चुनाव जीतकर आए थे। इस सीट पर भाजपा का भी मजबूत आधार है और 2020 से पहले यह सीट भाजपा के पास थी।
सांस्कृतिक विरासत: फुलपरास और झंझारपुर
जननायक कर्पूरी ठाकुर की विरासत वाली फुलपरास सीट पर अभी जेडीयू की शीला कुमारी विधायक और मंत्री हैं। उनका दावा मजबूत माना जा रहा है, लेकिन कांग्रेस की भी इस सीट पर नजर है।
झंझारपुर में पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र 2020 में जीते और मंत्री बने। इस बार चर्चा है कि राजद के गुलाब यादव की बेटी उन्हें चुनौती दे सकती है, जो 2015 में गुलाब यादव ने नीतीश मिश्र को हराया था।
ऐतिहासिक विरासत: कोढ़ा और नौतन
कटिहार की कोढ़ा सीट पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री की राजनीतिक धरोहर है। वे तीन बार (1967, 1969, 1972) यहाँ से विधायक बने। 2020 में भाजपा की कविता देवी ने कांग्रेस की पूनम पासवान को हराकर जीत दर्ज की थी।
पश्चिमी चंपारण का नौतन केदार पांडेय की सीट रही है। 1977 के कठिन समय में भी केदार पांडेय ने यहाँ जीत हासिल की थी। 2020 में भाजपा के नारायण प्रसाद यहाँ से जीते थे। केदार पांडेय के पोते शाश्चत केदार भी राजनीति में सक्रिय हैं।
सोनपुर और दीघा: राजनीतिक संघर्ष के केंद्र
सारण की सोनपुर सीट से लालू प्रसाद ने 1980 और 1985 में चुनाव जीता था। वर्तमान में राजद के डॉ. रामानुज प्रसाद सिंह यहाँ विधायक हैं, लेकिन इस बार टिकट वितरण को लेकर चर्चा जारी है।
दीघा सीट पूर्व मुख्यमंत्री केबी सहाय और महामाया प्रसाद सिन्हा की पुरानी पटना पश्चिम विधानसभा सीट का विकसित रूप है। 2020 के चुनाव में भाजपा के संजीव चौरसिया यहाँ से विधायक बने और भाकपा माले की शशि यादव दूसरे स्थान पर रहीं।
चुनावी संभावनाएं और मतदाता मूड
इन सीटों की विशेषता यह है कि यहाँ मतदाता अभी भी उन नेताओं को याद करते हैं जिन्होंने पूरे प्रदेश में अपनी पहचान बनाई। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, इन सीटों पर पारिवारिक राजनीति, विकास के मुद्दे और स्थानीय नेतृत्व की स्वीकार्यता का मिश्रण दिखाई देता है।
यह चुनाव इस बात का भी परीक्षण होगा कि क्या राजनीतिक विरासत आज भी उतनी प्रभावी है या फिर नई पीढ़ी के मतदाता नए मुद्दों और नेतृत्व की तलाश में हैं। इन ऐतिहासिक सीटों पर होने वाले मुकाबले बिहार की राजनीति की भावी दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
