सार
विलुप्ति के खतरे का सामना कर रहे कल्लार नृत्यത്തवाला (Kallar dance frog) के नाम से जाने जाने वाले कल्लार पिलिगिरियन मेंढक (Kallar Piligirian Frog) रांची वन क्षेत्र में पाए गए हैं। भौगोलिक खासियत के चलते पश्चिमी घाट के चेंगोट्टा गैप को पार कर इनके केरल के उत्तरी भागों में जाने की संभावना नहीं थी। पश्चिमी घाट पर्वत के भौगोलिक रूप से चेंगोट्टा, पलक्कड़, गोवा में मौजूद गैप सामान्य जीवों के आवागमन और प्रजनन को प्रभावित करते हैं और इसलिए माना जाता था कि इन गैप को पार कर छोटे जीव आमतौर पर उत्तरी क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। हालांकि, कल्लार पिलिगिरियन मेंढकों के रांची जंगल में मिलने से यह धारणा गलत साबित हुई है।
2022 के एक अध्ययन के अनुसार, सभी इंडो-मलायन वंशों में, माइक्रोक्सलस जीनस के मेंढक सबसे अधिक विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रहे हैं। दुनिया में सबसे ज़्यादा विलुप्ति के खतरे का सामना करने वाली पांचवीं प्रजाति के रूप में इनकी गिनती होती है। इस प्रजाति की 92% प्रजातियां विलुप्ति के खतरे का सामना कर रही हैं। 1942 में तिरुवनंतपुरम जिले के कल्लार में इन्हें पहली बार देखा गया था। इनका आवास चेंगोट्टा गैप के दक्षिण में ही सीमित है। टोरेंट मेंढक (Torrent frog) के रूप में भी पहचाने जाने वाले इस मेंढक का रांची वन में मिलना जैव विविधता में नए बदलावों की ओर इशारा करता है।
एर्नाकुलम कनमाला क्षेत्र में 15 जून 2023 को इन्हें देखा गया था। केरल विश्वविद्यालय के जूलॉजी विभाग के डॉ. सुजीत पी गोपालन के नेतृत्व में हुए फील्ड रिसर्च में मुव्वातुपुझा निर्मला कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर प्रिया थॉमस और डॉ. गिगी के जोसेफ ने रांची वन से कल्लार पिलिगिरियन मेंढकों को खोजा। सरीसृप और उभयचर (Reptiles & Amphibians) नामक अंतरराष्ट्रीय ओपन एक्सेस जर्नल में इस बारे में अध्ययन प्रकाशित हुआ है। रांची वन डिवीजन के गुडरिकल रेंज और रांची के वन क्षेत्रों में इनकी अच्छी खासी आबादी देखी गई है। मॉर्फोलॉजिकल और डीएनए विश्लेषण के जरिए मेंढकों की पहचान की गई। झरनों और नालों के पास नम क्षेत्रों में इन्हें आमतौर पर देखा जाता है। अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ये अपने पिछले पैरों को नृत्य की मुद्रा में हिलाते हैं, इसलिए इन्हें नृत्य मेंढक (dancing frog) कहा जाता है। छोटे कीड़े-मकोड़े इनका मुख्य भोजन हैं। मिट्टी के कटाव, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन ने नृत्य मेंढकों की संख्या को किस हद तक प्रभावित किया है, इस पर विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है।