अटल बिहारी वाजपेयी का गोरक्षपीठ और गोरखपुर से रिश्ता औपचारिक नहीं, बल्कि श्रद्धा, विश्वास और भावनात्मक जुड़ाव पर आधारित था। उन्होंने प्रोटोकॉल से ऊपर मानवीय संबंधों को रखा और यही उन्हें महान बनाता है।
लखनऊ। भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद करना केवल एक प्रधानमंत्री को स्मरण करना नहीं है। यह उस व्यक्तित्व को याद करना है, जिसने सत्ता से पहले संवेदना और राजनीति से पहले मानवीय रिश्तों को महत्व दिया। उनका जीवन मूल्यों, संवाद और संतुलन की मिसाल रहा।
श्रीगोरक्षपीठ से अटल जी का आत्मीय रिश्ता
श्रीगोरक्षपीठ से अटल बिहारी वाजपेयी का जुड़ाव औपचारिक नहीं, बल्कि विश्वास, श्रद्धा और साझा वैचारिक चेतना पर आधारित था। गोरखनाथ मंदिर और गोरक्षपीठ उनके लिए केवल धार्मिक स्थल नहीं थे, बल्कि भारतीय परंपरा, संस्कृति और आत्मिक चेतना के प्रतीक थे। यह रिश्ता समय के साथ और गहराता गया।
प्रोटोकॉल से ऊपर श्रद्धा: 22 मार्च 2004 की स्मरणीय घटना
22 मार्च 2004 का दिन इस संबंध की गहराई को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान अटल जी महराजगंज में जनसभा को संबोधित कर चुके थे। कार्यक्रम के बाद उन्हें दिल्ली लौटना था और गोरखपुर का कार्यक्रम केवल एयरपोर्ट तक सीमित था।
लेकिन गोरखपुर पहुंचते ही उन्होंने अचानक गोरखनाथ मंदिर जाने की इच्छा जताई। यह कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नहीं था, बल्कि उनके मन से निकली भावना थी। प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियां प्रोटोकॉल को लेकर असहज हुईं, लेकिन अटल जी ने शांत और दृढ़ स्वर में कहा कि वे महंत अवेद्यनाथ से अवश्य मिलेंगे।
व्हीलचेयर पर मंदिर तक पहुंचे अटल जी
उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के घुटने में गंभीर दर्द था। इसके बावजूद वे वाहन से उतरकर व्हीलचेयर के सहारे गोरखनाथ मंदिर परिसर तक पहुंचे। उन्होंने सबसे पहले गुरु गोरक्षनाथ का दर्शन-पूजन किया और फिर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ से भेंट कर उनका आशीर्वाद लिया। मंदिर से जुड़े लोगों के अनुसार, उस दिन दोनों के बीच हुई बातचीत केवल औपचारिक नहीं थी। श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन सहित राष्ट्रीय और सामाजिक विषयों पर गंभीर और विचारपूर्ण चर्चा हुई।
महंत अवेद्यनाथ के प्रति अटल जी का सम्मान
अटल जी के मन में महंत अवेद्यनाथ के प्रति गहरा सम्मान था। श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका और जन्मभूमि यज्ञ समिति के अध्यक्ष के रूप में उनके योगदान को अटल जी संघर्ष, धैर्य और वैचारिक दृढ़ता की मिसाल मानते थे। यह सम्मान केवल राजनीतिक सहमति का नहीं, बल्कि विचारों और मूल्यों की साझेदारी का था। इसी कारण दोनों के संबंध समय के साथ और अधिक मजबूत होते गए।
1989 का राजनीतिक दौर और अटूट संबंध
वर्ष 1989 में जनता दल और भाजपा गठबंधन के कारण गोरखपुर संसदीय सीट जनता दल के खाते में चली गई। संत समाज के आग्रह पर महंत अवेद्यनाथ ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। उस समय भाजपा नेतृत्व ने स्पष्ट किया कि वह खुला सहयोग नहीं कर पाएगा।
इसके बावजूद महंत अवेद्यनाथ चुनाव मैदान में उतरे और भारी मतों से विजयी होकर संसद पहुंचे। इस राजनीतिक परिस्थिति का अटल जी और महंत अवेद्यनाथ के संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा। मतभेदों के बावजूद सम्मान और संवाद बना रहा।
गोरखपुर से अटल जी का पारिवारिक जुड़ाव
गोरखपुर से अटल बिहारी वाजपेयी का रिश्ता केवल आध्यात्मिक या वैचारिक नहीं था, बल्कि गहरे पारिवारिक भाव से भी जुड़ा था। वर्ष 1940 में वे पहली बार गोरखपुर अपने बड़े भाई की बारात में सहबाला बनकर आए थे। उस समय किसी ने कल्पना नहीं की थी कि यह बालक एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा। गोरखपुर में उनके भाई की ससुराल होने के कारण यह शहर उनके लिए हमेशा घर जैसा रहा। जीवन के हर पड़ाव पर गोरखपुर उनके लिए विशेष स्थान रखता रहा।
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी भावनात्मक जुड़ाव बना रहा
प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रोटोकॉल ने उनकी निजी यात्राओं को सीमित जरूर किया, लेकिन भावनात्मक रिश्ता कभी कम नहीं हुआ। 1998 में गोरखपुर की एक जनसभा में अटल जी ने स्वयं कहा था कि इस शहर से उनका विशेष नाता है, क्योंकि यहां उनकी ससुराल है और यहां के लोगों से उनका आत्मीय संबंध है।
श्रद्धा, विचार और विश्वास की साझा यात्रा
श्रीगोरक्षपीठ और अटल बिहारी वाजपेयी का संबंध सत्ता और संत के बीच का औपचारिक संवाद नहीं था। यह श्रद्धा, विचार और विश्वास की साझा यात्रा थी। अटल जी की जयंती पर जब देश उन्हें स्मरण करता है, तब गोरखपुर और गोरक्षपीठ उन्हें उस नेता के रूप में याद करते हैं, जिसने प्रोटोकॉल से पहले श्रद्धा और राजनीति से पहले रिश्तों को महत्व दिया।


