सार
कुंदरकी उपचुनाव में भाजपा के रामवीर ठाकुर ने सपा के हाजी रिजवान को भारी मतों से हराया। मुस्लिम बहुल क्षेत्र में यह जीत चर्चा का विषय बनी हुई है।
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के कुंदरकी विधानसभा सीट (Kundarki Assembly seat) पर हुए उपचुनाव में भाजपा के रामवीर ठाकुर को बड़ी जीत मिली है। उन्होंने समाजवादी पार्टी के हाजी रिजवान सहित 11 मुस्लिम प्रत्याशियों को एक लाख से अधिक मतों के अंतर से हराया है।
कुंदरकी में 65 प्रतिशत मतदाता मुसलमान हैं। यहां भाजपा के ठाकुर ने सपा के हाजी को एक लाख से ज्यादा वोटों के भारी अंतर से हराया है। इस जीत ने राजनीति की नई इबारत लिखी है। इस रिजल्ट ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। विपक्ष को विश्वास ही नहीं हो रहा है कि उसे कैसे हार मिली। अखिलेश यादव की पार्टी सपा ने ईवीएम में छेड़छाड़ का आरोप लगाया है। वहीं, भाजपा ने दावा किया है कि मुस्लिम मतदाताओं, खासकर शेखों तक रामवीर सिंह की रणनीतिक पहुंच ने जीत में भूमिका निभाई। धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए जाने जाने वाले इस सीट पर इस बार विभाजन मुस्लिम समुदाय के भीतर हो गया। तुर्क और शेख उपसमूहों के बीच वोट बंट गए।
रामवीर सिंह को इस मॉडल से मिली जीत
रामवीर सिंह की जीत को पिछले दो दशकों में उनके निरंतर जमीनी प्रयासों का नतीजा बताया जा रहा है। लगातार तीन चुनाव हारने के बाद भी वह समुदाय से जुड़े रहे। स्थानीय कार्यक्रमों में शामिल हुए। लोगों की मदद की और सद्भावना को बढ़ावा दिया।
यहां तक कि नमाज में शामिल होने व टोपी और अरबी दुपट्टा पहनने से मुस्लिम मतदाताओं के बीच उनकी पहुंच बढ़ी। शेख समुदाय उनके पीछे एकजुट हो गया। दूसरी ओर हाजी रिजवान (एक तुर्क हैं) तीन बार विधायक रहने के बाद सत्ता विरोधी भावनाओं से जूझ रहे थे।
हाजी रिजवान को लेकर था मतदाताओं में असंतोष
हाजी रिजवान की हार का कारण उनके प्रदर्शन को लेकर मतदाताओं में असंतोष माना जा रहा है। चुनाव को बीच में ही रद्द करने की उनकी मांग ने उनके समर्थकों को और भी अलग-थलग कर दिया। असंतोष और एक समाज के भीतर ध्रुवीकरण ने समाजवादी पार्टी के गढ़ कुंदरकी में रामवीर सिंह को बढ़त दिलाई। मतदान के दिन दोपहर तक हवा साफ भाजपा की ओर बहती दिखी। मुस्लिम मतदाता भाजपा की ओर मुड़ गए थे।
मुसलमानों के बीच इस बात की अटकलें लगाई जा रही हैं कि रामवीर सिंह को अगले ढाई साल में खुद को साबित करने का मौका दिया जाए। कई मतदाताओं ने कथित तौर पर इसे उनके वादों को परखने के अवसर के रूप में देखा। अगर वे अपने वादे पूरे नहीं कर पाए तो अगले चुनाव में समाजवादी पार्टी में वापस जाने का विकल्प भी शामिल है।
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