मुंबई हमले के आतंकी अजमल आमिर कसाब का आज जन्मदिन है। 14 साल पहले उसने हमले के दौरान सीएसटी स्टेशन पर दस साल की एक बच्ची को गोली मारी। यह बच्ची ही उसकी काल बन गई। उसकी गवाही महत्वपूर्ण साबित हुई और कसाब फांसी के फंदे तक पहुंचा।
मुंबई। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में 26 नवंबर 2008 को आतंकी हमला हुआ था। इस हमले को करीब 14 साल हो चुके हैं। तब इस हमले में एक आतंकी जिंदा पकड़ा गया था, जिसका नाम अजमल आमिर कसाब था। आज इसी आतंकी का जन्मदिन है और इस दिन हम उसकी करतूतों की याद एक बार फिर अपने रीडर्स को दिला रहे हैं।
इस आतंकी हमले में 166 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 300 से अधिक लोग घायल हुए थे। तब पूरे देश में एक सुर में मांग उठी थी कि इसे फांसी दे दी जाए। मगर न्यायतंत्र पर भरोसा जताते हुए इसके खिलाफ केस दर्ज किए गए है। कोर्ट में सुनवाई हुई। सबूत पेश किए गए। गवाही भी हुई। उसके खिलाफ देविका नाम की लड़की ने भी गवाही दी थी। आतंकी के खिलाफ गवाही देने के लिए लोग देविका की तारीफ करते रहे हैं।

दस साल की लड़की को कसाब ने मारी थी गोली, मगर यह पैर में लगी
करीब तीन साल पहले देविका ने इस हमले की 11वीं बरसी पर सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी थी। उनकी यह भावुक कर देने वाली पोस्ट तब काफी वायरल हुई थी। आज कसाब के जन्मदिन पर हम उस आतंकी के बारे में तो नहीं, मगर इस बहादुर लड़की के बारे में जरूर बात करेंगे, जिसकी गवाही ने उसे मौत की सजा दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई। दरअसल, यह भगवान का शुक्र था कि देविका उस दिन आतंकी हमले में बच गई। तब उसकी उम्र करीब दस साल थी। अजमल आमिर कसाब ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनल यानी सीएसटी पर उसे गोली मारी थी, जो संयोग से देविका के पैर में ही लगी। कोर्ट में गवाही देते समय देविका ने उसकी पूरी हरकतें जज साहब के सामने सुना दी। इसके बाद 21 नवंबर की अलसुबह कसाब को फांसी दे दी गई थी।

देविका को गवाही देना भारी पड़ गया, लोगों ने बात तक करना बंद कर दिया।
वहीं, 3 साल पहले उस मंजर को याद करते हुए देविका ने पोस्ट में लिखा था, तब मैं दस साल की थी। सीएसटी स्टेशन पर मेरे दायें पैर को एक गोली ने छेद दिया। उस समय मैं और मेरा भाई पापा के साथ वहां थे। इससे पहले की कुछ समझते, लोग दौड़ने-भागने लगे। फिर मेरे में तेज दर्द शुरू हो गया। किसी तरह हम डॉक्टर के पास पहुंचे। स्टेशन पर बच्चों और महिलाओं के शव की याद करते हुए मैं दुख और गुस्से से भर उठती। जिसने गोली मारी, उसका चेहरा मेरे दिमाग में बस चुका था। मुझे करीब डेढ़ महीने अस्पताल में रहना पड़ा। ठीक होने के बाद गांव वापस चली गई। पुलिस ने जब गवाही के लिए हमसे कहा, तो मैं डरी नहीं। मैं चाहती थी। उसे सजा दी जाए। परिवार तब मेरे साथ नहीं था। उन्हें डर था कि मेरे साथ बुरा न हो जाए। मैं बैसाखी के सहारे चलते हुए कोर्ट रूम में पहुंची। उसे देखते ही मेरा दिल गुस्से से भर गया था। मगर इससे बहुत से लोग मेरे परिवार के खिलाफ हो गए। मेरे पिता की दुकान बंद हो गई। लोगों ने बात करना बंद कर दिया। मैं अधिकारी बनकर अन्याय के खिलाफ लड़ना चाहती हूं।
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