सार
हमारे देश में भगवान श्रीकृष्ण के अनेक प्रसिद्ध मंदिर हैं। उड़ीसा (Orissa) के पुरी (Puri) में स्थित जगन्नाथ मंदिर भी इनमें से एक है। ये हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक है।
उज्जैन. उड़ीसा के पुरी में हर साल आषाढ़ मास में भगवान जगन्नाथ (Jagannath Rath Yatra 2022) की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा निकाली जाती है। इस बार ये यात्रा 1 जुलाई, शुक्रवार से आरंभ होगी, जिसका समापन 10 जुलाई, रविवार को होगा। इस रथयात्रा में शामिल होने के लिए देश-विदेश से लाखों भक्त यहां आते हैं। जितनी प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा है, उतनी ही प्रसिद्ध इस मंदिर की रसोई भी भी है। इसे भारत की सबसे बड़ी रसोई (Jagannath Temple Kitchen) भी कहा जाता है और यहां के प्रसाद को महाप्रसाद कहा जाता है। आगे जानिए जगन्नाथ मंदिर की रसोई से जुड़ी खास बातें…
800 लोग तैयार करते हैं भगवान का भोग
जगन्नाथ मंदिर की रसोई की कई विशेषताएं इसे खास बनाती हैं। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए एक समय में 800 लोग काम करते हैं, इनमें 500 रसोइए तथा 300 सहयोगी होते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है। प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के सात बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है और सभी को एक-दूसरे के ऊपर रखा जाता है। खास बात यह है कि सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले और सबसे नीचे रखे बर्तन का खाना बाद में पकता है।
मिट्टी के बर्तनों का होता है उपयोग
जगन्नाथ मंदिर की रसोई में बनने वाला हर पकवान हिंदू धर्म पुस्तकों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग में किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं किया जाता। भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है। रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है।
यहां के प्रसाद को क्यों कहते हैं महाप्रसाद?
आमतौर पर भगवान को लगाए गए भोग में प्रसाद के रूप में भक्तों में बांटा जाता है, लेकिन एकमात्र भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया गया भोग महाप्रसाद कहलाता है। इसके पीछे की मान्यता है कि एक बार महाप्रभु वल्लभाचार्य की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुंचने पर मंदिर में ही किसी ने उन्हें प्रसाद दे दिया। एकादशी होने न तो महाप्रभु प्रसाद ग्रहण कर सकते थे और न ही खा सकते हैं, इसलिए उन्होंने प्रसाद हाथ में लेकर ही पूरी रात प्रभु की भक्ति की और अगले दिन प्रसाद को ग्रहण किया व्रत का पारण किया। तभी से इस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ।
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