सार

हर इंसान की ये आदत होती है कि वो दूसरों की गलतियां तो तुरंत देख लेता है, लेकिन अपने अंदर की बुराइयां उसे नजर नहीं आती। अगर कोई व्यक्ति उसे गलतियां बता भी दे तो भी व्यक्ति उसे मानने से इंकार कर देता है। ये मानवीय स्वभाव है।

उज्जैन. अक्सर हम ये भूल जाते हैं कि जब भी हम किसी पर ऊंगली ऊठाते हैं तो बाकी की चारों उंगलियां हमारे खुद की ओर मुड़ जाते हैं। इसलिए सबसे पहले अपनी बुराइया खत्म करें। इसके बाद दूसरों के दुगुर्णों की ओर देखें। Asianetnews Hindi Life Management सीरीज चला रहा है। इस सीरीज के अंतर्गत आज हम आपको ऐसा प्रसंग बता रहे हैं जिसका सार यही है दूसरों की अवगुण देखने से पहले हमें अंदर भी झांक लेना चाहिए।

जब गुरु ने शिष्य को दिया चमत्कारी दर्पण
एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद जब शिष्य विदा होने लगा तो गुरू ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया। वह साधारण दर्पण नहीं था। उस दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।
शिष्य, गुरू के इस आशीर्वाद से बड़ा प्रसन्न था। उसने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच कर ली जाए। परीक्षा लेने की जल्दबाजी में उसने दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया। शिष्य को तो सदमा लग गया । दर्पण यह दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट नजर आ रहे है।
मेरे आदर्श, मेरे गुरूजी इतने अवगुणों से भरे है! यह सोचकर वह बहुत दुखी हुआ। दुखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हो गया तो हो गया, लेकिन रास्ते भर मन में एक ही बात चलती रही कि जिन गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित एक आदर्श पुरूष समझता था लेकिन दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया ।
उसके हाथ में अब दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था। इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेता। उसने अपने कई इष्ट मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर उनकी परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया।
जो भी अनुभव रहा सब दुखी करने वाला वह सोचता जा रहा था कि संसार में सब इतने बुरे क्यों हो गए है। सब दोहरी मानसिकता वाले लोग है। जो दिखते हैं दरअसल वे हैं नहीं। इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुखी मन से वह किसी तरह घर तक पहुंच गया ।
उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया। उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है। उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते है। इनकी परीक्षा की जाए। उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा। ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। 
अब उस शिष्य के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी। उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर। शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया। 
गुरुजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाजा लगा चुके थे। चेले ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष है। कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा? क्षमा के साथ कहता हूं कि स्वयं आपमें और अपने माता-पिता में मैंने दोषों का भंडार देखा। इससे मेरा मन बड़ा व्याकुल है।”
तब गुरुजी हंसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे। ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो।
गुरुजी बोले “बेटा, यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था न कि दूसरों के दुर्गुण खोजने के लिए। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता।”
शिष्य को अपनी गलती का अहसास हुआ और दर्पण गुरु के पास ही छोड़कर वहां से चला गया। उसने प्रतिज्ञा की कि सबसे पहले मैं अपने अंदर को दुगुर्णों को दूर करूंगा।

लाइफ मैनजेमेंट
सुधार की शुरूआत स्वयं से करनी चाहिए, न कि किसी दूसरे से। अक्सर लोग दूसरे की बुराइयां तो आसानी से देख लेते हैं और स्वयं में क्या कमियां हैं, इसके बारे में विचार नहीं करते।

 

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