हाल ही में हई एक स्टडी से पता चला है कि बच्चों को ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएं देने से उनके स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। जानकारी के मुताबिक, गरीब और पिछड़े देशों में बच्चों के इलाज में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है।
हेल्थ डेस्क। हाल ही में हई एक स्टडी से पता चला है कि बच्चों को ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएं देने से उनके स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। जानकारी के मुताबिक, गरीब और पिछड़े देशों में बच्चों के इलाज में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है। कई बीमारियों में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल जरूरी हो जाता है, क्योंकि बैक्टीरियल इन्फेक्शन को खत्म करने में इन दवाओं से ज्यादा कारगर और कुछ भी नहीं। एंटीबायोटिक्स का कोई विकल्प सामने नहीं आया है, लेकिन इनके ज्यादा इस्तेमाल से बॉडी में इनका रेसिस्टेंस पैदा हो जाता है और इसके बाद फिर इनका प्रभाव कम होता जाता है। इससे स्वास्थ्य को दूसरे नुकसान भी पहुंचते हैं।
गरीब और पिछड़े देशों में ज्यादा खतरा
स्टडी में पाया गया कि गरीब और पिछड़े देशों में बच्चों का इलाज करने के दौरान एंटीबायोटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। इन देशों में बच्चों को 5 साल के भीतर औसतन 25 तरह की एंटीबायोटिक्स दवाएं दे दी जाती हैं। इतना ज्यादा एंटीबायोटिक्स देने के कारण उसका रेसिस्टेंस बच्चों में विकसित हो जाता है। बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो जाती है और फिर किसी मामूली संक्रमण का सामना कर पाने में भी वे समर्थ नहीं रहते।
क्या कहा मुख्य शोधकर्ता ने
इस स्टडी के मुख्य शोधकर्ता और लेखक गुंटर फिंक ने कहा कि गरीब देशों के बच्चे ज्यादा बीमार होते हैं और उनके इलाज में दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल किया जाता है। इससे इन बच्चों के सामान्य स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो सकता है, लेकिन अभी हमें पता नहीं है कि वास्तव में यह खतरा कितना हो चुका है। गुंटर फिंक स्विस टीपीएच में हाउसहोल्ड इकोनॉमिक्स एंड हेल्थ सिस्टम्स की रिसर्च यूनिट के हेड हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन ने क्या कहा
बता दें कि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन का कहना है कि एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस का बढ़ना पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या है और यह एंटीबायोटिक्स के ज्यादा इस्तेमाल से पैदा हुई समस्या है। वहीं, गरीब और पिछड़े देशों में कुपोषण और दूसरे कारणों से बच्चे ज्यादा बीमार पड़ते हैं। जब वे अस्पताल जाते हैं तो उन्हें एंटीबायोटिक्स दे दिए जाते हैं।
तंजानिया का उदाहरण
इस मामले में तंजानिया का उदाहरण देते हुए कहा गया कि कई अध्ययनों से पता चला है कि वहां 90 प्रतिशत बच्चों को एंटीबायोटिक्स प्रिस्क्राइब किए गए, जबकि वास्तव में इसकी जरूरत महज 20 प्रतिशत बच्चों को ही थी। स्विस टीपीएच और हार्वर्ड चान स्कूल रिसर्च टीम ने 2007 से 2017 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इसके लिए हैती, केन्या, मालवई, नामीबिया, नेपाल, सेनेगल, तंजानिया और युगांडा से हेल्थ फैसिलिटीज के आंकड़े जुटाए गए। तथ्यों के विश्लेषण से पता चला कि औसतन 5 साल के हर बच्चे को 25 एंटीबायोटिक्स दिए गए, जबकि किसी भी बच्चे को एक साल में दो एंटीबायोटिक्स प्रिस्क्राइब करना भी ठीक नहीं समझा जाता।
इन बीमारियों दी गई एंटीबायोटिक्स
स्टडी से पता चला कि 81 प्रतिशत मामलों में बच्चों को सांस से संबंधित बीमारियों में एंटीबायोटिक्स दी गईं, 50 प्रतिशत डायरिया में और 28 प्रतिशत मलेरिया की बीमारी में। एक शोधकर्ता ने कहा कि एंटीबायोटिक्स का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने से शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बहुत कम जाती है और जो बीमारियां अपने आप भी ठीक हो सकती हैं, उनके लिए भी एंटीबायोटिक्स पर निर्भर करना पड़ता है। दूसरी तरफ, एंटीबायोटिक्स का असर खत्म हो जाता है। इससे इलाज में परेशानी होती है।