सुभाष चंद्र बोस ने दिया था 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का नारा, हिटलर भी हो गया था कायल

सुभाष चंद्र बोस ने आजादी की लड़ाई में अहम रोल निभाया था। उन्होंने 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा'का नारा दिया था। वह हिटलर से मिलने जर्मनी गए थे। हिटलर भी उनकी बुद्धिमत्ता का कायल हो गया था।

Asianet News Hindi | Published : Mar 26, 2022 3:56 AM IST / Updated: Mar 26 2022, 09:27 AM IST

नई दिल्ली। भारत अपनी आजादी का 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। यह मौका हर भारतवासी के लिए खास है। यह आजादी हमें यूं ही नहीं मिली। इसके लिए लाखों वीर सपूतों ने अपनी जान न्योछावर कर दी। आज हम आपको ऐसे ही वीर सपूत नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के बारे में बता रहे हैं। 

स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक सुभाषचंद्र बोस का जन्म ओडिशा के कटक जिले में 23 जनवरी 1897 को हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती देवी था। सुभाष चंद्र बोस की शुरुआती शिक्षा कलकत्ता के 'प्रेसिडेंसी कॉलेज' और 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से हुई थी। इसके बाद वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए ब्रिटेन गए। 1920 में उन्होंने 'भारतीय प्रशासनिक सेवा' की परीक्षा उत्तीर्ण की। आईसीएस की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष ने आईसीएस से इस्तीफा दिया। इस बात पर उनके पिता ने उनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा था कि जब तुमने देश सेवा का व्रत ले ही लिया है तो कभी इस पथ से विचलित मत होना।

1919 में हुई जलियांवाला बाग हत्याकांड ने पूरे देश के लोगों को विचलित कर दिया था। देश के युवा महात्मा गांधी का समर्थन करने के लिए सड़कों पर उतरे थे। इसी दरम्यान सुभाष चंद्र बोस भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। उनके पिता ने अंग्रेजों के दमनचक्र के विरोध में 'रायबहादुर' की उपाधि लौटा दी थी। 

1938 में बने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष
इसके बाद नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए। दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। इतिहासकारों का मानना है कि नेताजी गांधी जी के अहिंसा में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए वह जोशीले क्रांतिकारियों के दल के प्रिय बन गए। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच आजादी पाने के लिए जो रास्ता अपनाना चाहिए उसको लेकर असहमति थी, लेकिन दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे। 1938 के कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी ने कहा था कि मेरी यह कामना है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में ही हमें स्वाधीनता की लड़ाई लड़नी है। हमारी लड़ाई केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से नहीं, विश्व साम्राज्यवाद से है। 

1939 में कांग्रेस से दिया इस्तीफा
हालांकि, बाद में चलकर नेताजी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इतिहासकारों का मानना है कि महात्मा गांधी सुभाष चंद्र बोस के विचारों से सहमत नहीं थे। यही वजह है कि धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी के अंदर की परिस्थितियां सुभाष चंद्र बोस के विपरीत हो गईं। नेताजी  कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे, लेकिन इसके बाद भी गांधी जी और उनके करीबियों ने नेताजी के खिलाफ ही असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था। इसकी वजह से 16 मार्च 1939 को उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। 

इसके बाद सुभाष ने आजादी के आंदोलन को एक नई राह देते हुए युवाओं को संगठित करने का प्रयास शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में 'भारतीय स्वाधीनता सम्मेलन' के साथ हुई। 5 जुलाई 1943 को 'आजाद हिन्द फौज' का  गठन हुआ। आजाद हिंद फौज में 85000 सैनिक शामिल थे। कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली महिला यूनिट भी थी। इसके बाद नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

कोलकाता में नजरबंद थे नेताजी 
उस समय दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। नेताजी को लगा कि ब्रिटेन के दुश्मनों के साथ मिलकर अंग्रेजी हुकूमत से आजादी हासिल की जा सकती है। ब्रिटिश हुकूमत को नेताजी पर शक था। इसी वजह से ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में उन्हें नजरबंद कर दिया था। कुछ दिन बाद नेताजी अंग्रेजों की आंखों में धूल झोककर भागने में सफल हुए और जर्मनी पहुंचे।
 
हिटलर हो गया था नेताजी का कायल
भारत को आजाद कराने का सपना लिए नेताजी जर्मनी के तनाशाह हिटलर से मिलने पहुंचे थे। इस दौरान एक रोचक वाकया हुआ। हिटलर को जान का खतरा था। इसके चलते नेताजी को पहले एक कमरे में बैठा दिया गया। हिटलर अपने बचाव के लिए अपने आस-पास बॉडी डबल रखता था जो बिल्कुल उसी की तरह दिखते थे। नेताजी कुछ देर कमरे में बैठे रहे। इसके बाद  नेताजी से मिलने के लिए हिटलर की शक्ल का एक शख्स आया और नेताजी की तरफ हाथ बढ़ाया।

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नेताजी ने हाथ तो मिला लिया, लेकिन मुस्कुराकर बोले कि आप हिटलर नहीं हैं। मैं उनसे मिलने आया हूं। वह शख्स सकपका गया और वापस चला गया। थोड़ी देर बाद हिटलर जैसा दिखने वाला एक और शख्स नेताजी से मिलने आया। हाथ मिलाने के बाद नेताजी ने उससे भी कहा कि वे हिटलर से मिलने आए हैं ना कि उनके बॉडी डबल से। इसके बाद हिटलर खुद नेताजी से मिलने आया। 

नेताजी ने असली हिटलर को पहचान लिया और कहा कि मैं सुभाष हूं। भारत से आया हूं। आप हाथ मिलाने से पहले कृपया दस्ताने उतार दें। क्योंकि मैं मित्रता के बीच में कोई दीवार नहीं चाहता। नेताजी के आत्मविश्वास को देखकर हिटलर भी उनका कायल हो गया। उसने तुरंत नेताजी से पूछा कि आपने मेरे हमशक्लों को कैसे पहचान लिया। नेताजी ने उत्तर दिया कि उन दोनों ने अभिवादन के लिए पहले हाथ बढ़ाया, जबकि ऐसा मेहमान करते हैं। नेताजी की बुद्धिमत्ता से हिटलर प्रभावित हो गया।

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तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा 
12 सितंबर 1944 को रंगून के जुबली हॉल में शहीद यतीन्द्र दास की स्मृति दिवस पर नेताजी ने अत्यंत जोशिला भाषण देते हुए कहा था कि अब हमारी आजादी निश्चित है। परंतु आजादी बलिदान मांगती है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। यही देश के नौजवानों में प्राण फूंकने वाला वाक्य था। यह भारत ही नहीं, विश्व के इतिहास में भी स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

16 अगस्त 1945 को टोक्यो के लिए निकलने पर ताइहोकु हवाई अड्डे पर नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, जिससे उनकी मौत हो गई। हालांकि सुभाष चंद्र बोस का शव कभी नहीं मिल पाया। इसी कारण उनकी मौत पर आज भी विवाद बना हुआ है।

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