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बिहार की प्रसिद्ध बूढ़ी काली मंदिर, क्या है मान्यता और खासियत, जहां देश के गृहमंत्री ने की पूजा
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मूर्ति दान देने की लगी है होड़, करना पड़ता है 21 साल का इंतजार
इस मंदिर के प्रति भक्तों में इतनी श्रद्धा और विश्वास है कि यहां मूर्ति दान की होड़ लगी रहती है। अगर कोई मूर्ति दान की इच्छा रखता है तो उसे 21 साल तक प्रतीक्षा करनी होगी। बूढ़ी काली मंदिर में हर वर्ष कार्तिक महीने की अमावस्या को भव्य रूप में निशि पूजा होती है, जिसमें सुदूर क्षेत्रों से आए बड़ी संख्या में भक्त इस निशि पूजा में शामिल होते हैं। किशनगंज के प्रसिद्ध बूढ़ी काली मंदिर पर लोगों की अटूट आस्था है। लोगों की मनोकामना यहां पूरी होती है। बेरोजगारों को नौकरी मिलती है। जब लोगों की मन्नत पूरी होती है, तो लोग प्रतिमा चढ़ाते हैं।
मंदिर बनने की कहानी... पहले डाकू करते थे पूजा
बताया जाता है कि कई वर्ष पहले यह स्थान जंगलों से घिरा था तब डाकू माता की फोटो रख त्रीशूल गाड़ पूजा करने के बाद ही बाहर निकलते थे। स्थानीय लोगों का कहाना है कि पहले यहां घना जंगल था। तब डाकू माता काली की फोटो रख पूजा करते थे। आधुनिकता के साथ ही लोगों के विकास के बाद अन्य लोग भी मंदिर देख यहां पूजा करने लगे।
2005 में बना भव्य मंदिर
इसके बाद मिट्टी की बेदी बना माता स्थापित किया गया। गोबर से रंगाई कर लोग इसकी पूजा करते थे। वहीं लोगों के सहयोग से मंदिर में विकास होता रहा। 2005 में स्थानीय जज व अन्य के सहयोग से मंदिर का भव्य निर्माण करवाया गया।
कुंवारे लोग नहीं मूर्ति को नहीं लगाते हाथ
आज भी मंदिर में कुंवारे युवक युवतियों की मनोकामना हमेशा पूर्ण होती है। इसके साथ ही कुंवारे कभी माता की प्रतिमा को मान्यतानुसार हाथ नहीं लगाते। इस मंदिर में स्थापित माता काली काफी प्रसिद्ध है।
पुराना होने के कारण बूढ़ी मंदिर नाम पड़ा
किशनगंज का यह प्रसिद्ध काली मंदिर सौ साल से भी पुराना है। इसकी स्थापना 1902 में हुई थी। पुरानी मंदिर होने की वजह से इसे बूढ़ी काली मंदिर कहा जाता है। कहा जाता है कि यहां पूजा अर्चना करने से सभी मनोकामना पूरी होती है। यही वजह है कि मंदिर में मत्था टेकने दूर-दूर से लोग आते हैं। ये एक सिद्ध और जागृत मंदिर है, कार्तिक अमावस्या को यहां विशेष निशि पूजा होती है।
खुले में तांत्रिक विधि से होती है मां काली की पूजा
मां काली की प्रतिमा हर साल खुले में ही स्थापित की जाती है। इसका कारण बताया गया कि कई बार स्थानीय लोगों ने पिंडी पर छत बनाने का निर्णय लिया लेकिन मैया का आदेश नहीं मिलने के कारण छत नहीं बनाई जा सकी। अभी चारदीवारी है और उसी के अंदर पिंडी पर हर साल मां काली की प्रतिमा खुले में बिठायी जाती है। यहां तांत्रिक विधि से मां काली की पूजा की जाती है।
नवाब असद रजा ने दी थी मंदिर के लिए जमीन
इस मंदिर की जमीन नवाब असद रजा ने दी थी। इस मुस्लिम नवाब द्वारा मंदिर के लिए जमीन दान देने के कारणों की कई कहानियां प्रचलित है। यही वजह है कि बूढ़ी काली मंदिर को हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक माना जाता है।