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'डॉक्टर ने कहा कभी नहीं चल पाएगा आपका बेटा'...पैर देख रोती थी मां, वहीं लड़का अफसर बनकर आया घर
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आशीष बचपन से ही सेरेब्रल पाल्सी नामक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे मगर वो प्रतिभाशाली और पढ़ने-लिखने के शौक़ीन थे। दिव्यांगों के बारे में प्रचलित हर ‘स्टीरियो टाइप’ को तोड़ा और हर अपनी ज़िंदादिली से मुक़ाम हासिल किया। आज आशीष पटना में IDAS अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।
आशीष अपनी कहानी खुद सुनाते हुए बताते हैं कि, जब मेरे माता-पिता को डॉक्टरों ने बुला कर ये कहा कि, 'आपके बेटे को सेरेब्रल पाल्सी नाम की दुर्लभ बीमारी है, ये कभी चल नहीं सकता। आपको यह सत्य स्वीकार करना होगा। एक अच्छी बात ये है कि इसकी आई क्यू (IQ) ठीक है, वर्ना ऐसे अधिकांश मामलों में मानसिक क्षमता के नष्ट होने की भी बहुत सम्भावना होती है।’
इस सत्य को स्वीकार करने के अलावा मेरे और मेरे परिवारजनों के पास कोई और विकल्प नहीं था। आदर्श अवस्था तो यही होती है कि आप कठिन-से-कठिन सत्य को भी सरलता से और प्रसन्नता से स्वीकार कर लें।
किंतु, सत्य की स्वीकृति संसार के बने-बनाए पैमानों से जब टकराती है तो संघर्ष होना स्वाभाविक है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ। एक ऐसा भी समय था कि पटना का कोई भी स्कूल मुझे दाखिला देने को तैयार न था। उन्हें अपने तथाकथित सामान्य बच्चों के मध्य एक 'असामान्य' बच्चे को स्थान देना शायद सहज नहीं लगता था। किंतु, जब आप किसी पत्थर से टकराने का निर्णय लेते हैं तो वह पत्थर जल्दी ही मोम बन जाता है। यह मेरी उत्कट आकांक्षा थी और परिवार का सबल सहयोग, जिसने मेरी पढ़ाई का रास्ता प्रशस्त किया। एक अच्छा संकेत यह था कि मैं जिस विद्यालय में भी जाता, वहां तमाम बाधाओं के बावजूद हर कक्षा में टॉप करता था।
साथ-ही-साथ बचपन से कविताएं लिखने का शौक था, जुनून था, जो अब भी अनवरत कायम है। मेरी कविताएं बचपन से ही विभिन्न क्षेत्रीय, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। इन सबने कुल मिलाकर मेरे मन में और मेरे परिवारजनों के मन में यह आशा बलवती की कि मैं भी शायद समाज के लिए उपयोगी हो सकता हूँ। जैसे-तैसे पढ़ाई आगे बढ़ी।
बिहार स्टेट बोर्ड की बारहवीं की परीक्षा में मैंने पूरे राज्य में आठवां स्थान हासिल किया और फिर पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स (हिंदी साहित्य) में तीसरा स्थान एवं एम. ए. (हिंदी साहित्य) में पूरे विश्विद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। फिर UGC NET उत्तीर्ण करने के बाद घर पर ही सिविल सेवा की तैयारी करने लगा। जाहिर-सी बात है, दिल्ली जाकर तैयारी करना या कोचिंग क्लासेस करना मेरे लिए दुष्कर था।इसलिए मैंने स्व-अध्ययन का ही सहारा लिया। प्रयत्नों का सुखद सुफल सामने था।
सन 2011 की UPSC सिविल सेवा परीक्षा मैंने उत्तीर्ण की। चारों ओर से बधाइयों का तांता लग गया था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं टी वी चैनल्स पर मेरी सफलता की कहानियाँ चल रही थीं। इसी क्रम में मुझे सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय, नई दिल्ली से एक कॉल आया। मुझे बताया गया कि आप देश के पहले ऐसे नागरिक हैं जिसने सेरेब्रल पाल्सी होने के बावजूद UPSC की सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की है। सन 2012 में मुझे सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के तत्वावधान में चलने वाले नेशनल ट्रस्ट की ओर से 'स्पंदन' (Best disable of the year) पुरस्कार भी दिया गया।
ये नहीं कहूँगा कि परेशानियाँ यहीं खत्म हो गईं। परेशानियाँ और भी आयीं। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) को मेरे शारीरिक मानकों के आधार पर मुझे सेवा प्रदान करने में परेशानी हुई। अंततः एक वर्ष के बाद मुझे भारतीय रक्षा लेखा सेवा (Indian Defence Accounts Service) आवंटित की गयी, जिसके तहत मैं वर्तमान में पटना में पदस्थापित हूँ। जो कुछ भी कहा है, बहुत संक्षेप में कहा। कहानी बहुत लंबी है और सफर अभी बाकी है।
जब आप दूसरे लोगों से भिन्न होते हैं तो निस्संदेह लोगों का नजरिया भी आपके प्रति भिन्न होता है। इसी भिन्नता को मिटाना है। विकलांगता कोई विकृति नहीं है, बल्कि यह एक अवस्था है। अवस्था तो हर किसी की होती है, मेरी, आपकी, सबकी। तो मैं भला आपसे भिन्न क्यों? जितने पूर्ण आप हैं, उतना मैं भी हूँ और जितना अपूर्ण मैं हूँ, उतने आप भी हैं। मैं व्हीलचेयर पर हूं और आप व्हीलचेयर पर नहीं हैं, इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सम्पूर्णता की खोज की आवश्यकता मुझे अधिक है और आपको कम !