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12 साल में हुई शादी, पति के अत्याचार सहे, 60 रु महीने से शुरू की नौकरी,आज 750 करोड़ की है मालकिन

नई दिल्ली. कहते हैं कि जहां चाह है वहां राह है। और उसमें भी खास बात यह कि जब खुद पर भरोसा हो तो कोई भी ऐसा मुकाम नहीं जिसे हासिल न किया जा सके। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है कल्पना सरोज ने। जो गरीबी से उठकर आज एक नया मुकाम हासिल किया है और 700 करोड़ की कंपनी की मालकीन है। इसमें हैरान करने वाली बात यह है कि घर में फुटी कौड़ी ने होने, किसी का साथ न होने के बाद उन्होंने इस कारनामे को कर दिखाया है। यानी गरीब परिवार में जन्मी कल्पना आज करोड़पति हैं। इसके साथ ही कल्पना करोड़ों का टर्नओवर देने वाली कंपनी की चेयरपर्सन और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हैं। आखिर कैसे मिली उन्हें सफलता? जानते हैं उनके बारे में...

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Asianet News Hindi
Published : Jan 12 2020, 03:51 PM IST| Updated : Jan 12 2020, 04:21 PM IST
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कल्पना सरोज कमानी स्टील्स, केएस क्रिएशंस, कल्पना बिल्डर एंड डेवलपर्स, कल्पना एसोसिएट्स जैसी दर्जनों कंपनियों की मालकिन हैं। बिजनेस में एक चर्चित चेहरा होने के साथ ही वह समाजसेवा के क्षेत्र में भी बड़ी चेहरा हैं। जिसका नतीजा है कि समाजसेवा और उद्यमिता के लिए कल्पना को पद्मश्री और राजीव गांधी रत्न के अलावा देश-विदेश में दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं।
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कल्पना का जन्म सूखे का शिकार रह चुके महाराष्ट्र के 'विदर्भ' में हुआ था। घर की माली हालात खराब थी। जिसके कारण कल्पना गोबर के उपले बनाकर बेचा करती थीं।लेकिन मेहनत और कुछ कर गुजरने के जज्बे ने आज 700 करोड़ की कंपनी का मालिक बना दिया है।
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12 साल की उम्र में ही कल्पना की शादी उनसे 10 साल बड़े आदमी से कर दी गई। जिसके कारण कल्पना विदर्भ से मुंबई की झोंपड़ पट्टी में आ पहुंची। शादी होने के कारण कल्पना की पढ़ाई थम गई। ससुराल में घरेलू कामकाज में जरा सी चूक पर कल्पना की रोज पिटाई होती थी। इस पूरे घटनाक्रम से शरीर पर जख्म पड़ चुके थे और जीने की ताकत खत्म हो चुकी थी। एक रोज इस नर्क से भागकर कल्पना अपने घर जा पहुंचीं। ससुराल पहुंचने की सजा कल्पना के साथ-साथ उसके परिवार को मिली। जिसके कारण पंचायत ने परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया। जिसके बाद कल्पना को जिंदगी के सभी रास्ते भी बंद नजर आने लगे।
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इतनी प्रताड़ना सहने के बाद कल्पना के पास जीने का कोई मकसद नहीं बचा था। जिसके कारण उन्होंने तीन बोतल कीटनाशक पीकर जान आत्महत्या करने की कोशिश की। लेकिन ईश्वर उनके साथ था और ऐसा हो नहीं सका। जिसके कारण उनके रिश्ते की एक महिला ने जान बचा ली।
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कल्पना बताती हैं कि जान देने की कोशिश उनकी जिंदगी में सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट बनकर उभरा। 'मैंने सोचा कि मैं क्यों जान दे रही हूं, किसके लिए? क्यों न मैं अपने लिए जिऊं, कुछ बड़ा पाने की सोचूं, कम से कम कोशिश तो कर ही सकती हूं।'
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इस पूरे घटनाक्रम के बाद 16 साल की उम्र में कल्पना फिर मुंबई वापस लौटीं। लेकिन इस बार एक नई जिंदगी शुरू करने के उद्देश्य से। एक नए जोश और इरादे के साथ मुंबई पहुंची कल्पना को हुनर के नाम पर कपड़े सिलने आते थे और उसी के बल पर उन्होंने एक गारमेंट कंपनी में नौकरी कर ली।
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कपड़े की कंपनी में नौकरी करने के एवज में उन्हें यहां एक दिन में 2 रुपए की मजदूरी मिलती थी जो बेहद कम थी। जिसके बाद कल्पना ने निजी तौर पर ब्लाउज सिलने का काम शुरू किया। जिसमें उनको एक ब्लाउज के 10 रुपए मिलते थे। इन सब के बीच कल्पना की बीमार बहन की मौत हो गई। जिससे कल्पना बुरी तरह टूट गई। उस सदमे से उबरने के बाद कल्पना ने निर्णय लिया कि रोज चार ब्लाउज सिले तो 40 रुपए मिलेंगे और घर की मदद भी होगी। जिसके बाद उन्होंने ज्यादा मेहनत की, दिन में 16 घंटे काम करके कल्पना ने पैसे जोड़े और घरवालों की मदद की।
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इस दौरान कल्पना ने देखा कि सिलाई और बुटीक के काम में काफी स्कोप है और उन्होंने इसे एक बिजनेस के तौर पर समझने की कोशिश की। जिसके बाद उन्होंने 50,000 रुपए लोन लेकर एक सिलाई मशीन और कुछ अन्य सामान खरीदा और एक बुटीक शॉप खोल ली। दिन रात की मेहनत से बुटीक शॉप चल निकली तो कल्पना अपने परिवार वालों को भी पैसे भेजने लगी। बचत के पैसों से कल्पना ने एक फर्नीचर स्टोर भी स्थापित किया जिससे काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। इसी के साथ उन्होंने ब्यूटी पार्लर भी खोला और साथ रहने वाली लड़कियों को काम भी सिखाया।
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कल्पना ने दोबारा शादी की लेकिन पति का साथ लंबे समय तक नहीं मिल सका। दो बच्चों की जिम्मेदारी कल्पना पर छोड़ बीमारी से उनके पति की मौत हो गई। कल्पना के संघर्ष और मेहनत को जानने वाले उसके मुरीद हो गए और मुंबई में उन्हें पहचान मिलने लगी। इसी जान-पहचान के बल पर कल्पना को पता चला कि 17 साल से बंद पड़ी 'कमानी ट्यूब्स' को सुप्रीम कोर्ट ने उसके कामगारों से शुरू करने को कहा है।
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कंपनी के कामगार कल्पना से मिले और कंपनी को फिर से शुरू करने में मदद की अपील की। ये कंपनी कई विवादों के चलते 1988 से बंद पड़ी थी। कल्पना ने वर्करों के साथ मिलकर मेहनत और हौसले के बल पर 17 सालों से बंद पड़ी कंपनी में जान फूंक दी। कल्पना ने जब कंपनी संभाली तो कंपनी के वर्करों को कई साल से सैलरी नहीं मिली थी, कंपनी पर करोड़ों का सरकारी कर्जा था, कंपनी की जमीन पर किराएदार कब्जा करके बैठे थे, मशीनों के कलपुर्जे या तो जंग खा चुके थे या चोरी हो चुके थे, मालिकाना और लीगल विवाद थे। कल्पना ने हिम्मत नहीं हारी और दिन रात मेहनत करके ये सभी विवाद सुलझाए और महाराष्ट्र के वाडा में नई जमीन पर फिर से सफलता की इबारत लिख डाली।

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