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होली है ! कहीं अंगारों पर चलते हैं-कहीं मारते हैं पत्थर, इन इलाकों में होली पर दिखती है अजीबो-गरीब परंपराएं
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होली पर अंगारों पर चलते हैं
डूंगरपुर जिले के कोकापुर गांव में होली पर जलती होलिका पर चलने की परंपरा है जो अपने आप में क्षेत्र का अनोखा आयोजन है। यहां होलिका दहन के दूसरे दिन सुबह-सुबह गांव के लोग होलिका वाली जगह पहुचंते है और जलती होली के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर प्राचीन मान्यताओं और लोक परंपराओं को आगे बढ़ाते हैं। मान्यता है कि होलिका दहन से बाद दहकते अंगारों पर चहलकदमी करने से गांव पर कोई विपदा नहीं आती और गांववासियों का स्वस्थ्य भी ठीक रहता है। हजारों साल से ग्रामीण इस परम्परा को निभाते आ रहे हैं ताकि किसी तरह की कोई अनहोनी न हो।
रंग नहीं पत्थर से खूनी होली
डूंगरपुर (Dungarpur) के ही भीलूडा गांव में पत्थरमार खूनी होली खेली जाती है। पिछले 200 सालों से धुलंडी पर खुनी होली खेलने की परम्परा है। होली पर्व पर रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को भी शगुन मानने का अनोखा आयोजन होता है, जिसे स्थानीय बोली में पत्थरो की राड़ कहा जाता है। इस परंपरा में भीलूड़ा और आसपास के गांवों से आए प्रतिभागी हिस्सा लेते हैं। जैसे ही यह खेल शुरू होता है वैसे ही हाथों में पत्थर, गोफन और ढाल लिये ये लोग दो टोलियों में बंट जाते हैं और होरिया के चीत्कार लगाते हुए एक- दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते हैं। प्रतिभागियों के पास कुछ ढाले भी होती हैं जो विरोधी पक्ष से आने वाले पत्थरों की बौछारों को रोकती हैं। चोट लगने और खून बहते हैं और खून के साथ ही उत्साह भी बढ़ता जाता है।
यहां होली पर पुरुषों पर बरसते हैं कोड़े
राजस्थान के ही श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली खेलने की परंपरा सालों से चल रही है। होली के दिन यहां टोली रंग-गुलाल उड़ाते हुए निकलती है। होली पर देवर- भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है। इस मौके पर देवर- भाभी से नेग भी मांगते हैं। ढोल की थाप और डंके की चोट पर जहां हुरियारों की टोली रंग-गुलाल उड़ाती निकलती है। वही महिलाओं की मंडली किसी सूती वस्त्र को कोड़े की तरह लपेट कर रंग में भिगोकर इसे मारती हैं।
होली फूलो वाली
जयपुर (Jaipur) के गोविंद देव मंदिर में फूलों वाली होली की धूम होती है। मंदिर में आने वाले श्रद्धालु गुलाब-गेंदा-गुड़हल जैसे फूलें से होली खेलते हैं और भगवान श्रीकृष्ण और गोपी बन आस्था में डूब जाते हैं। यहां राधा-कृष्ण की प्रेमलीला से सराबोर भक्त कुछ यूं नाचते गाते हैं जैसे वृंदावन में स्वयं भगवान गोपियों संग उतर आए हों। होली के कई दिनों पहले से ही मंदिर में यह त्योहार शुरू हो जाता है।
डोलची वाली होली
बीकानेर (Bikaner) में डोलची वाली होली खेली जाती है। यह परंपरा लगभग 500 साल पुरानी है। वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को आज भी बीकानेर में वैसे ही मनाया जाता है, होली के इस मौके पर बड़े-बड़े कडाव यानी बर्तन को पानी से भरा जाता है। इस खेल में दो लोग आपस में खेलते है, चमड़े से बनी इस डोलची में खेलने वाला पानी भरता है और सामने खड़े अपने साथी की पीठ पर जोर से पानी से वार करता है और फिर उसे भी जवाब देने का मौका मिलता है जितनी तेज आवाज होती है उतना ही खेल का मजा आता है और जोश बढ़ता है। महिलाएं और बच्चे अपने घरो की छत से इस खेल के नजारे को देखती है और आखिर में खेल का अंत लाल गुलाल उड़ाकर और पारंपरिक गीत गाकर करती हैं।
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