सार

देश में हर दिन कोरोना के लाखों केस आ रहे रहे हैं। हजारों लोग मर भी रहे हैं, जबकि ठीक होने वालों की तादाद लाखों में है। फिर भी, इंसान मरने वालों का आंकड़ा देखकर डर और खौफ में जी रहा है। सबको लग रहा है हर कोई इस वायरस की चपेट में आ जाएगा, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। सावधानी, बचाव और पॉजिटिव सोच रखने वाले शख्स से यह बीमारी कोसों दूर भागती है।

जौनपुरः 4 हॉस्पिटल में बेड नहीं मिला तो समझ गया अब नहीं बचूंगा...। लेकिन पांचवें हॉस्पिटल में जब बेड और ऑक्सीजन की व्यवस्था हुई तो जो सुकून मिला वो बयां नहीं कर सकता। ऐसा लगा मानो किसी ने दुनिया का सबसे बड़ा सुख दे दिया हो। ये शब्द जौनपुर जिले के करकोली गांव के रहने वाले प्रमोद तिवारी उर्फ गोपाल तिवारी के हैं। उन्होंने 13 अप्रैल से 30 अप्रैल तक वायरस को हराने के लिए संघर्ष किया। इन्होंने बताया- होम आइसोलेशन और फिर हॉस्पिटल वाली जंग कैसे और किस तरह जिंदगी भर याद रहेगी। मैं खुद को बहुत मजबूत समझता था, लेकिन इस वायरस ने मेरी ताकत को एक झटके में शून्य कर दिया। पूरी जिंदगी दूसरों को सहारा देने वाले हाथ-पैर सलामत होते हुए भी अपंग बन चुके थे। ये युद्ध किस तरह जीता, मैं नहीं जानता। कहां से हिम्मत मिली, यह भी नहीं बता सकता।

Asianetnews Hindi के सुशील तिवारी ने गोपाल से बात की। 23 साल के बेटे और बड़े भाई का साथ पाकर इन्होंने वायरस को हराया। इस दौरान इन्होंने जो कुछ देखा, जो महसूस किया वो बहुत ही शॉकिंग था। इस कड़ी में पढ़िए इनके संघर्ष की पूरी कहानी...

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शरीर में लक्षण नहीं था, फिर भी पॉजिटिव हो गया...

''मेरा नाम प्रमोद तिवारी उर्फ गोपाल तिवारी है। 9 अप्रैल को छोटी बेटी को फीवर आया। मेडिकल से दवा लेकर दी, मन नहीं माना तो 11 अप्रैल को कोरोना की जांच कराने सरकारी हॉस्पिटल पहुंच गया। बेटी के साथ मैंने अपना भी टेस्ट करवा लिया। हालांकि, मैं उस समय खुद को फिट मान रहा था। 13 अप्रैल को मोबाइल पर रिपोर्ट आ गई। बेटी की रिपोर्ट नेगेटिव, जबकि मैं पॉजिटिव था। दिमाग चकरा गया। सोच में पड़ गया कि रिपोर्ट उल्टी तो नहीं आ गई। पॉजिटिव होने के बाद मेरे पास सरकारी हॉस्पिटल से तमाम फोन आने लगे। मेरा सोच-सोचकर दिमाग खराब हो रहा था कि बिना लक्षण रिपोर्ट पॉजिटिव कैसे आ गई। डॉक्टर ने बताया- कभी-कभी लक्षण शरीर के अंदर रहता है, जो दिखाई नहीं देता। आपके अंदर में भी लक्षण है, जो एक-दो दिन में दिख जाएगा। वही हुआ। 14 अप्रैल को फीवर, सर्दी की शुरूआत हो गई। इस बीच बेटी स्वस्थ हो चुकी थी।''

8 दिन तक सब नॉर्मल लग रहा था, 9वें दिन मामला डिरेल हो गया...

''13 अप्रैल को बिना समय गंवाए खुद को एक कमरे में कैद कर लिया। 14 अप्रैल को सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने घर आकर सभी जरूरी दवाएं दीं। 20 अप्रैल तक फीवर बना रहा। 21 अप्रैल से मामला डिरेल होना स्टार्ट हो गया। अब मेरा ऑक्सीजन लेबल डाउन होने लगा था। सांस नहीं लिया जा रहा था। पास के सरकारी डॉक्टर आर. पी. सिंह से लगातार बात की। उन्होंने एंबुलेंस भेजने की बात कही, लेकिन मना कर दिया। कहा- एकाध दिन देख लेता हूं। उन्होंने सलाह दी कि ऑक्सीजन लेबल डाउन हो रहा है तो तत्काल एडमिट हो जाओ। रिस्क मत लेना।''

4 बड़े हॉस्पिटल ने एडिमट करने से किया इनकार, लगा अब नहीं बचूंगा...

''22 अप्रैल सुबह तबियत ज्यादा खराब हो गई। बड़े भाई जयप्रकाश तिवारी और बेटे शुभम ने तत्काल गाड़ी बुलाई और मुझे इलाहाबाद ले गए। 9.30 बजे वहां पहुंच गया। फिर दाखिले की मशक्कत शुरू हुई। 5-6 घंटे के अंदर शहर के 4 बड़े हॉस्पिटल में चक्कर लगा डाले। गिड़गिड़ाने पर भी बेड नहीं मिला। मैं टूट रहा था। मन में डराने वाले खयालों की स्पीड बढ़ रही थी। शायद नहीं बचूंगा...जैसी बातें सोचकर मन ही मन रो रहा था। इस बीच मन की अभिव्यक्ति बयां नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मेरी वजह से 23 साल के बेटे ने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी। बड़े भाई ने इतना बड़ा रिस्क लिया था। पॉजिटिव मरीजों के बीच रहना, किसी बड़ी अनहोनी को दावत देने जैसा था। खुद से ज्यादा इन लोगों के बारे में सोचता था कि कहीं ये संक्रमित ना हो जाएं।''

लिखित नहीं, वर्बली जवाब मिलता था- बेड नहीं है...

''सुबह 9.30 बजे शहर के एक बड़े हॉस्पिटल पहुंचा। वहां 1.50 लाख रु. तत्काल जमा करने को कहा। जरूरत से ज्यादा टर्म एंड कंडीशन बता डाली। दवाई बाहर से लानी होगी। यहां कोई रुक नहीं सकता। कोई गारंटी नहीं देंगे। बड़े भैया ने कहा- अगर मैं पेशेंट से मिलूंगा नहीं तो पता कैसे चलेगा कि इलाज हो रहा है या नहीं। जो दवाई बाहर से लाऊंगा, वो पेशेंट को दी जा रही है या नहीं...। दूसरे हॉस्पिटल में जवाब मिला - बेड उपलब्ध नहीं है। तीसरे में गया तो वहां कोई व्यवस्था नहीं होने की बात कही गई। सभी जवाब हमें वर्बली मिल रहे थे। अंदर बेड है या नहीं है...इसकी कोई लिखित बात नहीं बता रहा था। फिर एक बड़े सरकारी हॉस्पिटल गया, वहां भी वही जवाब- बेड नहीं है। हां, एक हॉस्पिटल ने सिटी स्कैन जरूर करवा लिया था, इससे यह तो पता लग गया कि फेफड़ो में इन्फेक्शन कुछ ज्यादा ही है।''

हताशा के बीच संजीवनी बनकर आ गया रिश्तेदार का कॉल

''हॉस्पिटल के चक्कर लगा-लगाकर मेरी हालत पतली हो रही थी। शरीर टूट रहा था। बेचैनी बढ़ रही थी। इस बीच मेरे एक रिश्तेदार का फोन आया कि बेड की व्यवस्था हो गई है। वो MR थे, इस वजह से उनकी कुछ हॉस्पिटल्स में पहचान थी। उस वक्त वो भगवान बन गए थे। हताशा के बीच उनका फोन हमारे लिए संजीवनी जैसा था। उन्होंने तत्काल शहर में ही मौजूद पार्वती हॉस्पिटल जाने को कहा। गाड़ी घुमवा ली। दिन के 2.30 बजे के आसपास एडमिट हो गया। अच्छी व्यवस्था थी। डॉक्टर, नर्स, पूरा स्टाफ और मैनेजमेंट ने कभी फील नहीं होने दिया कि मैं एक कोरोना पेशेंट हूं।''

रोना-पीटना, बॉडी निकलना...जिस बेड पर था, वहां से सब दिखता था

''22 अप्रैल को मेरा ऑक्सीजन लेबल 79-80 था। जिस वार्ड मुझे रखा गया, वहां तकरीबन 20 बेड थे। 10-12 पेशेंट अंदर थे। मैं जनरल वार्ड में था, लेकिन ICU-इमरजेंसी वार्ड में भी अच्छे-खासे पेशेंट थे। एडिमट तो हो गया लेकिन उस समय जिस तरह से कैजुअल्टी हो रही थी, उसे देख और सुनकर मन बेचैन था। वो डर शायद बयां नहीं कर पाऊंगा। यह इसलिए था कि मैं वार्ड में एकदम गेट के सामने वाले बेड नंबर 3 पर था। बाहर की गतिविधियां आसानी से देख और सुन पा रहा था। रोना-पीटना, डेड बॉडी का निकलना...सबकुछ आंखों के सामने था। कैजुअल्टी देख मन विचलित हो जाता था। लगता था, मेरा भी अब आखिरी वक्त आ गया है। इस बीच किसी से कोई बात नहीं करता था। मन को कैस समझाऊं...इसके लिए भगवान का नाम और भजन मन ही मन स्टार्ट कर दिया। यह करने से मन डायवर्ट होता था और बुरे खयालों से दूरी बढ़ने लगती थी। भैया और छोटा बेटा जैसे मेरे चेहरे को पढ़ लेते थे। वो नर्वस देखकर तत्काल पास आते और हिम्मत देते थे। बताते थे- डॉक्टर ने कहा है, आप तेजी से रिकवर कर रहे हो। उनकी बातों से बल मिलता था। इस दौरान किसी से बात नहीं करता था। लेकिन 28 अप्रैल को जब पहली बार परिवार से वीडियो कॉल किया तो सिर्फ हाथ हिलाकर खुद के ठीक होने का संकेत सबको दिया। तत्काल फोन काटकर खूब रोया। हॉस्पिटल में रोना, पीटना, मौत का मंजर देखकर सोचता था कैसे बच गया।''

पूर्व विधायक के भतीजे ने भी दी हिम्मत, मैं पॉजिटिव था, फिर भी वो देता रहा सहारा

''22 को ही हमारे यहां के पूर्व विधायक विनोद सिंह भी मेरे बगल वाले बेड पर आ गए थे। वो भी संक्रमित थे। उनका एक भतीजा धीरज उनकी देखभाल के लिए रुका था। उसके व्यवहार से कहीं नहीं लगा कि ये लोग इतने बड़े आदमी हैं। मेरा बेटा और भैया वार्ड के बाहर रहते थे। कई बार मुझे बाथरूम जाना होता था, उस दौरान वो किसी को बुलाने नहीं देता था। वो अपना चप्पल मुझे पहनाता और हाथ पकड़कर टॉयलेट ले जाता। उसको यह भी डर नहीं था कि मैं पॉजिटिव हूं। हालांकि सिंह साहब इस जंग को हार गए। यह देखकर भी हिम्मत मिलती थी कि इस माहौल में जहां अपने भी दूरी बना लेते हैं, वहां एक बिना-जान पहचान वाला लड़का इस तरह से मदद कर रहा है।''

वायरस ने शरीर को हड्डियों का ढांचा बना दिया, 50 की उम्र झूल गए थे चमड़े

''मैं ठीक तो हो रहा था लेकिन इतनी कमजोरी थी कि चाहकर भी खुद से कुछ नहीं कर पाता था। 4-6 दिन तक असहाय हो गया था। हाथ-पैर सही सलामत थे, फिर भी अपंग जैसा था। डॉक्टर कहते थे- सबकुछ खाओ, खूब खाओ...लेकिन ना भूख लगती थी-ना प्यास। आधी रोटी, सेब का चौथाई भाग खाने में हालत खराब हो जाती थी। कमजोरी का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि मैं बिस्तर पर टॉयलेट करने लगा था। उठने की हिम्मत नहीं होती थी। हाथ और पैर का साइज एक हो गया था। अच्छी-खासी शरीर हड्डियों का ढांचा बन चुका था। हाथ से लेकर पैर तक का चमड़ा झूलने लगा था, सिकुड़न सी आ गई थी। ऐसा अमूमन किसी 90 साल के बुजुर्ग के साथ होता है। इसके पीछे की बड़ी वजह इन्फेक्शन का बढ़ता दायरा था। डॉ. ने कहा था- 7-8 घंटे अगर ऑक्सीजन और ना मिलता तो आप ये लड़ाई हार जाते।''

हॉस्पिटल के बाहर दलालों का बोलबाला, दो से तीन गुना वसूल रहे दवा की कीमत

''सबसे शॉकिंग था दवाइयों का ना मिलना। कई दवाइयां हॉस्पिटल के मेडिकल स्टोर पर नहीं होती थी। उसे लेने बाहर जाना पड़ता था। इस बीच इंसानियत नहीं दिखी। दलाल और मेडिकल वाले अनाप-सनाप पैसा वसूल रहे थे। इस खेल में सभी नहीं लेकिन कुछ लोगों ने खूब कालाबाजारी की। भाई और बेटे ने बाहर के मेडिकल से दवा के लिए दो से तीन गुना तक ज्यादा पैसा चुकाया। हद तो देखिए, रसीद मांगने पर वो लोग दवा ना देने की बात करते थे। मेरी योगी सरकार से अपील है कि हॉस्पिटल के बाहर जासूस छोड़ने चाहिए, ताकि ऐसे हैवानों पर शिकंजा कसा जा सके। हालांकि, हॉस्पिटल के अंदर मिलने वाली दवाइयों के रेट में कोई दिक्कत नहीं थी।''

50 साल की लाइफ में कभी नहीं सुना था ऐसा रोना...

''हॉस्पिटल में 24 अप्रैल की एक घटना आज भी मुझे झकझोर देती है। 49-50 साल की लाइफ में ऐसा रोना नहीं सुना था। ऐसा करुण क्रंदन की कलेजा फट जाए। बड़ी मुश्किल से उस दिन मैंने खुद को संभाला था। उस दौरान अच्छा फील करने लगा था, लेकिन वो दहाड़ सुनकर वापस उसी कंडीशन में पहुंच गया। हुआ यूं था कि उस रात जनपद भदोहीं के एक यादव का छोटा भाई खत्म हो गया था। विलाप का ऐसा तांडव भगवान किसी को ना सुनाए। फिलहाल, 22 से 29 अप्रैल तक वहां इलाज चला। 30 अप्रैल को घर आ गया। अब पूरी तरह से ठीक हूं। खूब खा रहा हूं।''

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