असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM बिहार में 2025 चुनाव के लिए तीसरे मोर्चे की तैयारी कर रही है। पार्टी 32 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, खासकर सीमांचल में, जहाँ 2020 में 5 सीटें जीती थीं। यह कदम महागठबंधन के वोट बैंक को प्रभावित कर सकता है।

पटनाः बिहार की राजनीति में इस बार हलचल का नया कारण न तो लालू प्रसाद यादव हैं और न ही नीतीश कुमार। इस बार सुर्खियों में हैं हैदराबाद के सांसद और AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, जो फिर से बिहार की सियासत में तीसरे मोर्चे की चिंगारी भड़काने में जुट गए हैं। अब तक बिहार की जंग पारंपरिक तौर पर दो ध्रुवों के बीच लड़ी जाती रही है। एनडीए बनाम महागठबंधन। लेकिन 2025 में तस्वीर शायद अलग हो सकती है। ओवैसी ने साफ कहा है कि जनता अब दो नहीं, तीसरा विकल्प चाहती है। इसी घोषणा के साथ AIMIM ने 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है।

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने भी इसकी पुष्टि की है। उन्होंने बताया कि AIMIM राज्य के 16 जिलों में चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में है। यानी सीमांचल से लेकर मधुबनी तक, ओवैसी इस बार बिहार के हर राजनीतिक समीकरण में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहते हैं।

ओवैसी का नया गढ़ सीमांचल

2020 के विधानसभा चुनाव में AIMIM ने सीमांचल में अप्रत्याशित सफलता हासिल की थी। अमौर, बायसी, जोकीहाट, बहादुरगंज और कोचाधामन, ये पांच सीटें थीं, जहां पार्टी ने जीत दर्ज कर सबको चौंका दिया था। यहीं से ओवैसी की पार्टी का बिहार में राजनीतिक सफर शुरू हुआ था। सीमांचल की अहमियत इसलिए भी है क्योंकि यहां मुस्लिम आबादी करीब 47% है। किशनगंज में यह आंकड़ा 68%, कटिहार में 44.5%, अररिया में 43% और पूर्णिया में करीब 39% तक पहुंचता है। इस इलाके में AIMIM का असर स्वाभाविक रूप से बढ़ रहा है, और यही ओवैसी का मुख्य “पावर ज़ोन” बनता जा रहा है।

2022 में झटका, अब फिर वापसी की तैयारी

हालांकि, 2022 में पार्टी को बड़ा झटका लगा जब चार विधायकों ने AIMIM छोड़कर RJD का दामन थाम लिया। सिर्फ अख्तरुल ईमान पार्टी में बचे। उसके बाद से यह चर्चा शुरू हो गई कि AIMIM का बिहार चैप्टर अब खत्म हो गया है। लेकिन ओवैसी का अंदाज़ कभी हार मानने वाला नहीं रहा। उन्होंने दोबारा संगठन खड़ा करना शुरू किया, स्थानीय नेताओं को जोड़ा, और अब वही नेटवर्क 2025 में तीसरे मोर्चे का ढांचा बन रहा है।

नए सहयोगियों की तलाश में ओवैसी

दिलचस्प बात यह है कि ओवैसी ने हाल में बताया कि उन्होंने RJD प्रमुख लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव को भी गठबंधन का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। अब AIMIM खुलकर कह रही है कि वह अपना रास्ता खुद बनाएगी। राजनीतिक सूत्रों के अनुसार, ओवैसी छोटे दलों और क्षेत्रीय संगठनों के साथ हाथ मिलाने की कोशिश में हैं। खासकर पिछड़े वर्गों, दलितों और मुस्लिम युवाओं के बीच पकड़ मजबूत करने पर ध्यान है। अगर AIMIM इसमें सफल होती है, तो यह गठबंधन NDA और महागठबंधन, दोनों के लिए सिरदर्द बन सकता है।

किसे होगा नुकसान, कौन होगा फ़ायदे में?

जानकार मानते हैं कि सीमांचल की सीटों पर AIMIM की सक्रियता महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। क्योंकि परंपरागत रूप से इन सीटों पर मुस्लिम और यादव मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अगर मुस्लिम वोट ओवैसी की ओर शिफ्ट होते हैं, तो सीधे तौर पर RJD को नुकसान होगा। वहीं NDA के लिए यह “split vote” फायदेमंद साबित हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ, अगर ओवैसी सीमांचल से बाहर अपनी पकड़ बढ़ाने में कामयाब हुए, तो वो खुद “किंगमेकर” की स्थिति में आ सकते हैं।

तीसरा मोर्चा या नया वोट बैंक?

ओवैसी का कहना है, “हम बिहार में उन लोगों को आवाज़ देना चाहते हैं जिन्हें अब तक सिर्फ वोट बैंक समझा गया।” उनका यह बयान साफ संकेत देता है कि AIMIM इस बार सिर्फ मुस्लिम वोटों पर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और विकास के एजेंडे पर मैदान में उतरना चाहती है।