बिहार में अब तक 3 दलित मुख्यमंत्री (भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास, जीतनराम मांझी) हुए हैं। राजनीतिक अस्थिरता व आंतरिक कलह के कारण, कोई भी एक साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका, जो SC नेतृत्व की प्रतीकात्मक स्थिति को दर्शाता है।

पटनाः बिहार, वह धरती रही है जहाँ से सामाजिक न्याय की सबसे मुखर आवाजें उठी हैं। यहाँ दलित और पिछड़े वर्गों की राजनीतिक चेतना भारत में सबसे अधिक मानी जाती है। इसके बावजूद, आजादी के बाद से केवल तीन बार अनुसूचित जाति (SC) समुदाय के नेताओं को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का अवसर मिला – भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास और जीतनराम मांझी।

विडंबना यह है कि इन तीनों में से कोई भी नेता एक साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाया। भोला पासवान शास्त्री का कुल कार्यकाल 112 दिन रहा, रामसुंदर दास 302 दिन टिके, और जीतनराम मांझी का कार्यकाल 278 दिन रहा। यह आकस्मिक नहीं, बल्कि बिहार की गहन और जटिल राजनीतिक संरचना को दर्शाता है, जहाँ SC नेतृत्व को प्रायः प्रतीकात्मक शक्ति के रूप में देखा गया, न कि स्थायी शक्ति के रूप में।

बिहार के 3 अल्पकालिक मुख्यमंत्रियों की गाथा…

भोला पासवान शास्त्री: (कुल कार्यकाल-112 दिन)

भोला पासवान शास्त्री बिहार के पहले अनुसूचित जाति से आने वाले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने तीन बार (1968, 1969 और 1971) मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन उनका कोई भी कार्यकाल लंबा नहीं चला। उनका कार्यकाल 1967 के बाद के उस दौर में आया जब भारतीय राजनीति में 'आया राम गया राम' की संस्कृति हावी थी। बिहार में गठबंधन और दलबदल अपने चरम पर थे।

अल्पायु की वजह: शास्त्री जी को मुख्यमंत्री बनाने वाली संयुक्ता विधायक दल की सरकारें बहुत ही अस्थिर थीं। ये छोटी-छोटी पार्टियों और निर्दलीय विधायकों का बेमेल गठजोड़ थीं। आंतरिक मतभेद, एक-दूसरे पर अविश्वास और सत्ता की खींचतान इतनी तीव्र थी कि किसी भी मुख्यमंत्री का टिकना मुश्किल था। शास्त्री जी की ईमानदारी और सादगी इस अस्थिर राजनीति की बलि चढ़ गई।

रामसुंदर दास: (कार्यकाल- 302 दिन)

रामसुंदर दास 1979 में मुख्यमंत्री बने। वे जनता पार्टी के नेता थे और उनका उदय आपातकाल विरोधी लहर के बाद हुआ था। उन्होंने दलितों और वंचितों के उत्थान के लिए काम किया और सरकारी नौकरियों में आरक्षण नीतियों में बदलाव करने की कोशिश की।

अल्पायु की वजह: रामसुंदर दास का कार्यकाल पार्टी के आंतरिक विद्रोह के कारण छोटा रहा। जनता पार्टी धड़ों में बंटी हुई थी—जनसंघ, सोशलिस्ट और अन्य गुट। उस समय बिहार की राजनीति में दबदबा रखने वाले प्रभावशाली अगड़ी जाति के नेताओं ने उन्हें सहजता से स्वीकार नहीं किया। दलितों के उत्थान के लिए उनके द्वारा लिए गए कठोर फैसलों ने पार्टी के अंदर ही एक बड़े वर्ग को उनके खिलाफ कर दिया। अंततः, पार्टी के अंदर ही अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

जीतनराम मांझी: (कार्यकाल- 278 दिन)

जीतनराम मांझी को 2014 में नीतीश कुमार ने अपने इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री बनाया था। वह बिहार के पहले मुसहर समुदाय से मुख्यमंत्री बने, जो दलितों में सबसे वंचित वर्ग माना जाता है।

अल्पायु की वजह: मांझी को अक्सर उनके 'संरक्षक' नेता द्वारा एक 'प्रॉक्सी' या 'रबर स्टाम्प' मुख्यमंत्री के रूप में देखा गया। जब उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना और अपनी अलग पहचान बनाना शुरू किया, तो उनके और उन्हें नियुक्त करने वाले नेता (नीतीश कुमार) के बीच टकराव शुरू हो गया। उनके कार्यकाल को लेकर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में लगातार अस्थिरता की अटकलें चलती रहीं। अंततः, उन्हें विश्वास मत से पहले ही पद छोड़ना पड़ा, जिससे साबित हुआ कि उनका उदय राजनीतिक मजबूरी का हिस्सा था, न कि मजबूत जनादेश का।