बिहार का डालमियानगर, जो कभी एशिया का सबसे बड़ा औद्योगिक शहर था, अब खंडहर बन चुका है। 1933 में रामकृष्ण डालमिया द्वारा स्थापित इस औद्योगिक टाउनशिप में कई उद्योग थे। वित्तीय अनियमितताओं और मजदूर आंदोलनों के कारण 1984 में यह बंद हो गया।

पटनाः एक समय था जब बिहार के रोहतास जिले के डेहरी ऑन सोन में स्थित डालमियानगर भारत के औद्योगिक मानचित्र पर चमकता सितारा था. आज यह खंडहर बन चुका है और गुमनामी के अंधेरे में खो गया है. यहां की सुनसान सड़कें और बंद पड़ी फैक्ट्रियों की दीवारें चुपचाप उस खोए हुए सुनहरे दौर की गवाही दे रही हैं.

1933 में रखी गई थी नींव

डालमियानगर की कहानी 1933 में शुरू होती है, जब रामकृष्ण डालमिया ने रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड के तहत यहां एक चीनी मिल की स्थापना की थी. राजस्थान के एक छोटे से गांव से निकलकर रामकृष्ण डालमिया कलकत्ता और फिर बिहार पहुंचे थे. अपने सपनों को आकार देने के लिए उन्होंने सोन नदी के किनारे बसे गुमनाम गांवों को चुना. यहां लाइमस्टोन, गन्ना, रेलवे कनेक्टिविटी और सोन नदी जैसे संसाधन उनकी महत्वाकांक्षा को उड़ान देने के लिए काफी थे. ऐसे में उन्होंने यहां के दर्जनों गांवों की जमीन खरीद ली और रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड नाम से एक कंपनी खड़ी की. जिसके अधीन एक के बाद एक इकाइयां शुरू की गई.

धीरे-धीरे यहां सीमेंट, कागज, साबुन, केमिकल और डालडा जैसे कई उद्योग शुरू हो गए. डालमियानगर 3800 एकड़ में फैला एक औद्योगिक टाउनशिप बन गया, जिसमें न केवल कारखाने थे, बल्कि स्कूल, कॉलेज, रेलवे लाइन, कर्मचारियों के लिए क्वार्टर, बिजली घर और निजी हवाई अड्डा भी था. यह टाउनशिप विकास का प्रतीक बन गया और इसे डालमियानगर के नाम से जाना जाने लगा.

एशिया के सबसे बड़े उद्योगिक शहर के रूप में जाना जाता था

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में यहां सीमेंट फैक्ट्री का उद्घाटन किया था. उस समय यह फैक्ट्री देश की सबसे बड़ी सिंगल यूनिट फैक्ट्री थी. 1939 में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने पेपर फैक्ट्री की नींव रखी. उस समय यह भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक परिसर बन चुका था. एक समय था जब डालमियानगर एशिया के सबसे बड़े औद्योगिक शहर के रूप में जाना जाता था. रामकृष्ण डालमिया का नाम टाटा और बिड़ला के साथ देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में गिना जाता था.

एक पंडित ने की थी किस्मत बदलने की भविष्यवाणी

रामकृष्ण डालमिया की कहानी भी काफी रोचक रही है. राजस्थान के एक पंडित ने भविष्यवाणी की थी कि उनकी किस्मत पलटेगी और ऐसा ही हुआ. चांदी की एक डील से उन्हें डेढ़ लाख रुपए का मुनाफा हुआ. इसी के बाद उन्होंने उद्योग जगत में कदम रखा. कलकत्ता से लेकर पटना और फिर डालमियानगर तक उन्होंने अपनी कारोबारी सूझबूझ से हर जगह सफलता हासिल की.

मोहम्मद अली जिन्ना से थी अच्छी दोस्ती

सफल उद्योगपति बनने के बाद रामकृष्ण डालमिया का देश के कई राजनेताओं से मिलना-जुलना शुरू हो गया था. रामकृष्ण डालमिया की बेटी नीलिमा डालमिया ने एक यूट्यूब चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा था कि केवल उनके पिता आरके डालमिया ही भारत के विभाजन को रोक सकते थे क्योंकि वे पाकिस्तान के फाउंडर मोहम्मद अली जिन्ना के बहुत करीबी थे. रामकृष्ण डालमिया ने ही 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना का दिल्ली वाला घर खरीदा था. इसी इंटरव्यू में नीलिमा ने यह भी कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू रामकृष्ण डालमिया को पसंद नहीं करते थे.

पतन की शुरुआत

तीन दशकों तक खूब फलने-फूलने के बाद 1960 के दशक में सबकुछ बदलने लगा. डालमिया ग्रुप पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगने लगे. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सुप्रीम कोर्ट के जज विवियन बोस की अध्यक्षता में डालमिया-जैन ग्रुप की जांच के लिए एक कमेटी गठित की. जांच में वित्तीय अनियमितताएं सामने आईं. साल 1995 में सांसद फिरोज गांधी ने भी डालमिया ग्रुप में घोटाले को लेकर संसद में सवाल उठाए थे.

1984 में बंद हो गई कंपनी

इस बीच, बिहार में जातिगत हिंसा और मजदूर आंदोलनों ने उद्योग की स्थिति को और खराब कर दिया. 1970 के दशक में बिजली कटौती, नक्सली आंदोलन और बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति ने डालमियानगर के मजदूरों और प्रबंधकों को पलायन करने पर मजबूर कर दिया. 1984 में कंपनी बंद हो गई और इसे दिवालिया घोषित कर दिया गया.

दोबारा कंपनी को खड़ा करने का किया गया प्रयास

1990 के दशक में इस उद्योगिक क्षेत्र को फिर से जीवित करने के प्रयास किए गए. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बिहार सरकार ने 35 करोड़ रुपए की सहायता भी दी, जिससे कंपनी के सीमेंट कारखाने में काम शुरू हुआ. लेकिन ये फैक्ट्री दो साल से ज्यादा नहीं चल सकी. 2007 में जब लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री थे तो उन्होंने रेलवे फ्रेट बोगी निर्माण परियोजना शुरू की, जिसके लिए रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड के पेपर मिल की जमीन खरीदी गई, लेकिन

आज का डालमियानगर

आज डालमियानगर के अवशेष केवल खंडहर बनकर रह गए हैं. इसकी संपत्ति को लेकर अदालतों में विवाद चल रहे हैं. 2020 में रेलवे ने मरम्मत कार्य के लिए बजट स्वीकृत किया, लेकिन आज तक कोई काम शुरू नहीं हुआ. डालमियानगर की वीरानी में आज भी उसकी कहानी सांस लेती है. खंडहरों में गूंजती आवाजें हमें याद दिलाती हैं कि सपनों को साकार करना जितना कठिन है, उन्हें बचाए रखना उससे भी कठिन है.