बिहार में आजादी के बाद 37 साल तक 12 सवर्ण मुख्यमंत्री सत्ता में रहे। हालांकि, इनमें से केवल 2 ही अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा कर सके। अधिकांश मुख्यमंत्री दिल्ली के हस्तक्षेप और आंतरिक गुटबाजी के कारण अस्थिर रहे।
पटना, बिहार। बिहार की राजनीतिक इतिहास को अगर खंगाला जाए, तो आजादी के बाद करीब चार दशकों तक सत्ता के शीर्ष पर सवर्ण समाज का वर्चस्व रहा। इन सालों में कुल 12 सवर्ण नेताओं ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली और संयुक्त रूप से 37 साल 197 दिन तक प्रदेश की बागडोर संभाली। यह आंकड़ा इस वर्ग के राजनीतिक दबदबे को स्पष्ट दिखाता है। लेकिन इस दबदबे के पीछे एक बड़ी विडंबना भी छिपी है: इन 12 मुख्यमंत्रियों में से केवल दो ही ऐसे रहे जो अपना पाँच साल का निर्धारित कार्यकाल पूरा कर पाए। शेष 10 का कार्यकाल अधिकतम तीन वर्ष या उससे भी कम रहा, जो बिहार की सत्ता की आंतरिक अस्थिरता और 'किंगमेकर' संस्कृति की कहानी बयां करता है।
वर्चस्व का 'स्वर्णिम' और अस्थिर दौर
आजादी के तुरंत बाद से लेकर मंडल कमीशन की राजनीति के उभार तक, बिहार की राजनीति कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती थी और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सवर्ण समुदाय का नियंत्रण था। हालांकि, यह नियंत्रण श्रीकृष्ण सिंह और जगन्नाथ मिश्र जैसे दो दिग्गजों के कारण ही लंबे कार्यकाल में बदला।
श्रीकृष्ण सिंह (प्रथम मुख्यमंत्री): उन्होंने सबसे लंबी पारी खेली, कुल 17 वर्ष 52 दिनों तक बिहार की बागडोर संभाली, जो एक रिकॉर्ड है।
जगन्नाथ मिश्र: वे दूसरे ऐसे सवर्ण मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने पाँच वर्ष 180 दिनों का कार्यकाल पूरा किया।
इन दो अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी 10 मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल की कहानी 'सियासी भंवर' से भरी हुई है।
अल्पायु कार्यकाल: 17 दिन से 3 वर्ष तक
जिन 10 सवर्ण मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल अस्थिर रहा, उनका समयकाल दिखाता है कि दिल्ली दरबार या आंतरिक गुटबाजी ने उन्हें टिकने नहीं दिया:
- केबी सहाय: 3 वर्ष 154 दिन
- बिंदेश्वरी दूबे: 2 वर्ष 338 दिन
- विनोदानंद झा: 2 वर्ष 226 दिन
- चंद्रशेखर सिंह: 1 वर्ष 210 दिन
- केदार पांडेय: 1 वर्ष 105 दिन
- भागवत झा आजाद: 1 वर्ष 24 दिन
- महामाया प्रसाद सिंह: 329 दिन
- सत्येंद्र नारायण सिन्हा: 270 दिन
- हरिहर सिंह: 117 दिन
- दीपनारायण सिंह: केवल 17 दिन (सबसे छोटा कार्यकाल)
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना जितना आसान था, उस पर टिके रहना उतना ही मुश्किल था।
क्यों नहीं टिक पाए मुख्यमंत्री?
सवाल यह उठता है कि इतना बड़ा राजनीतिक वर्चस्व होने के बावजूद अधिकांश मुख्यमंत्री क्यों अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए? इसका मुख्य कारण 'किंगमेकर' की शक्ति में निहित था। ये किंगमेकर कोई बाहरी नेता नहीं, बल्कि तीन प्रमुख कारक थे:
दिल्ली दरबार का हस्तक्षेप: 1960 और 70 के दशक में, केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। बिहार के मुख्यमंत्री का चयन और पद से हटाया जाना सीधे तौर पर कांग्रेस हाई कमांड के आदेश पर निर्भर करता था। इंदिरा गांधी के युग में, हाई कमांड के एक इशारे पर मुख्यमंत्री बदल जाते थे। केबी सहाय या भागवत झा आजाद जैसे नेताओं को गुटबाजी या केंद्र के दबाव के कारण अचानक पद छोड़ना पड़ा।
आंतरिक गुटबाजी: कांग्रेस पार्टी के भीतर सवर्ण और अन्य जातिगत नेताओं के बीच गुटबाजी चरम पर थी। कोई भी मुख्यमंत्री तब तक शांति से काम नहीं कर पाता था, जब तक वह सभी गुटों को संतुष्ट न कर दे। इसी गुटबाजी ने कई मुख्यमंत्रियों के खिलाफ अविश्वास का माहौल बनाया।
गठबंधन की अस्थिरता: 1967 के बाद, संयुक्त विधायक दल (SVD) की सरकारों ने अस्थिरता को बढ़ाया। महामाया प्रसाद सिन्हा और हरिहर सिंह जैसे नेताओं को इस दौर में सत्ता मिली, लेकिन अंदरूनी खींचतान और दल-बदल के कारण ये सरकारें लंबे समय तक नहीं चल पाईं।
बदलते समीकरण और दबदबे का अंत
इस अस्थिरता के बाद, 1990 के दशक में मंडल की राजनीति का उभार हुआ। लालू प्रसाद यादव के उदय के साथ ही बिहार की सत्ता की चाबी अति पिछड़ा और दलित वर्गों के हाथ में चली गई। इसी के साथ, बिहार की राजनीति में 37 साल से चला आ रहा सवर्ण मुख्यमंत्रियों का वर्चस्व समाप्त हो गया।
