तेजस्वी यादव के 2025 में CM बनने की राह में कई चुनौतियाँ हैं। उन्हें अपने M-Y वोट बैंक को पप्पू यादव और ओवैसी से बचाना है। साथ ही, 'जंगलराज' की छवि से निकलकर 'A to Z' यानी सभी वर्गों को जोड़कर अपना सामाजिक आधार बढ़ाना होगा।

पटनाः पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय जनता दल (RJD) जिस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रही है, उस सपने का पूरा बोझ आज पार्टी सुप्रीमो लालू यादव के लाल तेजस्वी यादव के कंधों पर है। यह सपना है, राबड़ी देवी के बाद RJD का अगला मुख्यमंत्री। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में यह यक्ष प्रश्न आरजेडी और तेजस्वी दोनों को झकझोर रहा है कि क्या वे महागठबंधन के साथ इतनी सीटें ला पाएंगे कि वे बिहार के अगले मुख्यमंत्री बन सकें? तेजस्वी के सामने सिर्फ विरोधियों को हराने की चुनौती नहीं, बल्कि पार्टी के मूल एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को विस्तार देकर 'ए टू जेड' तक ले जाने, और अपनी राजनीतिक विरासत को 'जंगलराज' के आरोपों से मुक्त करके 'विकास' के एजेंडे पर स्थापित करने की है।

कांग्रेस की मजबूरी और तेजस्वी का नेतृत्व

महागठबंधन में शामिल होने के बावजूद, कांग्रेस ने काफी आनाकानी के बाद तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री उम्मीदवार मान लिया है। कांग्रेस के लिए तेजस्वी को नेता मानना मजबूरी भी है और जरूरी भी। पिछले विधानसभा चुनावों में, महागठबंधन में रहते हुए कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था। उसे लड़ने के लिए 70 सीटें मिलीं, लेकिन वह सिर्फ 19 सीटें ही जीत पाई, जिसका विनिंग स्ट्राइक रेट मात्र 27 फीसदी था। इसके विपरीत, आरजेडी ने 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटें जीती थीं (स्ट्राइक रेट 52%) और लेफ्ट फ्रंट का स्ट्राइक रेट तो 63% रहा।

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर कांग्रेस ने आरजेडी जैसा प्रदर्शन किया होता, तो 2020 में ही तेजस्वी की सरकार बन चुकी होती। इसी खराब प्रदर्शन के कारण, कांग्रेस बिहार में आरजेडी के पीछे चलने को विवश है, हालांकि दोनों के बीच 'शह-मात' का खेल लगातार चलता रहता है।

पप्पू यादव की चुनौती

तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती राहुल गांधी के समर्थक और नेता पप्पू यादव से है। यह लड़ाई बिहार में यादव समुदाय के वर्चस्व को लेकर है। बिहार में यादवों की आबादी करीब 15% है, जो पारंपरिक रूप से लालू यादव का वोट बैंक रहा है। लेकिन पप्पू यादव ने सीमांचल के यादव वोटों में अपनी मजबूत पैठ बना ली है। चूंकि सीमांचल में मुस्लिम वोट भी निर्णायक हैं, और पप्पू यादव की पकड़ दोनों समुदायों पर है, इसलिए लालू परिवार का चिंतित होना लाजिमी है। तेजस्वी को अब अपने 'यादव' आधार को एकजुट रखने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

मुस्लिम वोटों का 'नया निवेश'

सीमांचल की जीत-हार का फैसला पूरी तरह मुस्लिम वोटों के हाथों में है, और इस वोट बैंक के कई दावेदार मैदान में हैं। महागठबंधन, नीतीश कुमार, चिराग पासवान और सबसे खतरनाक असदुद्दीन ओवैसी। ओवैसी ने पिछले चुनाव में सीमांचल में पाँच सीटें जीतकर सभी को चौंका दिया था, और ये सभी सीटें 2015 में महागठबंधन की ही थीं। तेजस्वी के पिता लालू यादव ने 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा को रोककर मुसलमानों में विश्वास का जो निवेश किया था, उसके लाभांश से अब काम नहीं चलेगा। ओवैसी की सेंधमारी से यह स्पष्ट है कि तेजस्वी को मुस्लिम समुदाय का विश्वास दोबारा हासिल करने के लिए 'कुछ नया निवेश' करना होगा।

MY से A To Z तक की यात्रा

तेजस्वी के सामने सबसे बड़ी चुनौती सिर्फ मुस्लिम वोटों को साधने की नहीं, बल्कि हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को रोकने की भी है। इसके लिए उन्हें अपनी 'एम-वाई' (मुस्लिम-यादव) की मंजिल से आगे बढ़कर 'ए टू जेड' (A To Z) यानी सभी जातियों को जोड़ने के दावे को जमीन पर उतारना होगा।

  • यादवों से आगे: दूसरी ओबीसी जातियों को जोड़ना।
  • दलितों को वापस लाना: उन दलित वोटों को वापस लाना जो कभी आरजेडी के साथ थे, लेकिन बाद में पार्टी का साथ छोड़ गए।
  • यदि तेजस्वी अपने सामाजिक आधार का विस्तार नहीं कर पाते हैं, तो उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा होना कठिन होगा।

विरासत का दोधारी तलवार

तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी ताकत निस्संदेह उन्हें लालू यादव से मिली राजनीतिक विरासत है। यह विरासत उन्हें बनी-बनाई पार्टी संरचना, समर्पित कोर वोट बैंक और तत्काल पहचान देती है।लेकिन यही विरासत उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है। तेजस्वी को जनता के बीच यह साबित करना है कि उनकी राजनीति पिता की 'एम-वाई' और 'जंगलराज' वाली राजनीति से अलग हटकर विकास की राजनीति है। उन्हें यह सिद्ध करना होगा कि वे केवल उत्तराधिकारी नहीं, बल्कि अपनी योग्यता से एक अलग पहचान रखने वाले नेता हैं।