भारत की Cheetah परियोजना फिर अधर में, दस जोड़ी African चीतों को लाया जाना है Kuno National Park में

भारत में लगभग सात दशक पहले चीते विलुप्त हो गए थे। हमारे पास बाघों, एशियाई शेरों और तेंदुओं को रखने का अनुभव तो है लेकिन चीतों को पालने के लिए प्रबंधन की आवश्यकता है।

भोपाल। भारत में चीतों को लेकर शुरू होने वाली देश की सबसे महत्वकांक्षी वन्यजीव परियोजना (Wild life Project) एक बार फिर अधर में है। भारत में दस जोड़ी चीतों को दक्षिण अफ्रीका (South Africa) से लाया जाना था लेकिन कोरोना (Corona) के नए वेरिएंट ओमीक्रोन (Omicron) की वजह से एक बार फिर लाया न जा सका। मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के श्योपुर जिले के कुनो राष्ट्रीय उद्यान (Kuno National Park) में दस जोड़ी चीतों को लाना था। इसके लिए मध्य प्रदेश के वन अधिकारियों की एक टीम को इस साल दिसंबर में चीता प्रबंधन के प्रशिक्षण के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना था। प्रशिक्षण के बाद चीतों को लाया जाता।

एक साल से अधिक समय से चीतों को लाना अधर में

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सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद भारत सरकार ने नवंबर 2020 में चीता लाना तय किया था। लेकिन ग्वालियर-चंबल संभाग के जिलों में अगस्त माह में अतिवृष्टि और बाढ़ से कूनो पालपुर नेशनल पार्क में चीता के लिए बाड़ा तैयार करने का काम प्रभावित हुआ, इसलिए चीते नहीं लाए जा सके। एक बार और अधिकारियों नेलाने की योजना बनाई तो अफ्रीका में भारतवासियों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। जिस कारण मध्य प्रदेश के अधिकारी अंतिम दौर की चर्चा के लिए दक्षिण अफ्रीका नहीं जा पाए। जब हालात ठीक हुए, तो पहले दल को भेजने की नोटशीट चली। इस दल के साथ केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भी जाने को तैयार हो गए। जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने रोक लगा दी। इसके बाद सूची को संशोधित किया गया। सूची संशोधित हुई और 28 नवंबर को अधिकारियों का जाना तय हुआ। अधिकारी दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंच भी गए थे कि तब तक अफ्रीका में कोरोना के नए वेरियंट की पुष्टि हो गई और दौरा निरस्त करना पड़ा। कम से कम एक दशक से अधर में लटकी यह परियोजना एक बार फिर अनिश्चितकाल के लिए लटकती नजर आ रही है।

भारत में चीते सात दशक पहले विलुप्त

भारत में लगभग सात दशक पहले चीते विलुप्त हो गए थे। हमारे पास बाघों, एशियाई शेरों और तेंदुओं को रखने का अनुभव तो है लेकिन चीतों को पालने के लिए प्रबंधन की आवश्यकता है। इसके लिए न केवल राज्य के वन अधिकारियों की एक टीम, बल्कि एक राष्ट्रीय टीम के भी दक्षिण अफ्रीका जाने की उम्मीद थी, जो प्रशिक्षण प्राप्त करते। राष्ट्रीय टीम में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण, भारतीय वन्यजीव संस्थान और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रतिनिधियों के चुनिंदा सदस्य शामिल हैं। अधिकारी ने कहा कि पहले दोनों टीमों के अलग-अलग जाने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसी संभावना है कि राष्ट्रीय और राज्य दोनों वन टीमें एक साथ दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना होंगीं। लेकिन यह अब तय नहीं कि कबतक जाएंगी टीम। अधिकारी बताते हैं कि जबतक प्रशिक्षण पूरा नहीं होगा तबतक चीतों का लाना संभव नहीं होगा।

चीतों के रखरखाव पर खर्च होंगे 75 करोड़ रुपये

इस साल भोपाल में परियोजना के शुभंकर 'चिंटू चीता' का शुभारंभ करते हुए, वन मंत्री शाह ने कहा था कि 20 चीतों के रखरखाव की लागत लगभग 75 करोड़ रुपये आंकी गई है।

धीरे-धीरे उनको छोड़ा जाएगा जंगल में

जंगल में चीतों को रखने के लिए पहले उनको यहां के पर्यावरण व जलवायु अनुकूल बनाया जाएगा। इसलिए उनको सबसे पहले बाड़ो में रखा जाएगा। फिर धीरे-धीरे सामान्य होने पर उनको जंगलों में छोड़ा जाएगा।

भारत को पहले ईरानी चीतों को लाना था

अफ्रीकी चीतों से पहले ईरान के एशियाई चीतों को भारत लाया जाना था। लेकिन भारत के एशियाई शेरों की विनिमय शर्त पर ईरानियों ने भी चीतों को भेजने पर सहमति व्यक्त की थी। परंतु भारत अपने शेरों को जाने देना नहीं चाहता था जो केवल गुजरात में पाए जाते हैं।

एशियाई और अफ्रीकी चीतों में है काफी अंतर

भारत कभी एशियाई चीतों का घर था, जो यहाँ बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन अब, यह अफ्रीकी चीतों को लाएगी। अफ्रीकी और एशियाई चीतों के बीच काफी कुछ अंतर हैं। अफ्रीकी चीतों की तुलना में तेज दौड़ने में सक्षम नहीं होने के अलावा एशियाई चीते छोटे, हल्के, अधिक फर और लाल आंखें होती हैं। जबकि एशियाई चीते दिखने में बिल्लियों की तरह दिखते हैं, अफ्रीकी चीते पैंथर की तरह दिखते हैं। शारीरिक अंतर के बावजूद, अफ्रीकी चीतों का डीएनए एशियाई लोगों के डीएनए से 85% तक मेल खाता है।

महाराजा सरगुजा ने मार गिराया था अंतिम तीन चीतों को

भारत का वन्यजीव संरक्षण अधिनियम केवल 1972 में लागू किया गया था, जिसके पहले देश में शिकार करना कानूनी था और इसे राजघरानों का खेल माना जाता था। भारत के अंतिम तीन चीते अविभाजित मध्य प्रदेश में बचे थे, जिन्हें 1947 में सरगुजा (अब छत्तीसगढ़ में) के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने मार गिराया था। इसके तुरंत बाद, 1952 में, स्तनपायी को विलुप्त घोषित कर दिया गया, जो एकमात्र बड़ा स्तनपायी बन गया। 

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