सार
पार्किन्संस नर्वस सिस्टम से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी में शारीरिक संतुलन को बनाए रख पाना कठिन हो जाता है और पूरा शरीर में कंपन होने लगता है। दुनिया भर में इस बीमारी से करोड़ों लोग पीड़ित हैं।
हेल्थ डेस्क। पार्किन्संस नर्वस सिस्टम से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी में शारीरिक संतुलन को बनाए रख पाना कठिन हो जाता है और पूरे शरीर में कंपन होने लगता है। दुनिया भर में इस बीमारी से करोड़ों लोग पीड़ित हैं। अभी तक इस बीमारी का कोई सफल इलाज सामने नहीं आ सका है। लेकिन पार्किन्संस के मरीजों के लिए उम्मीद की एक किरण नजर आई है। वैज्ञानिकों ने इस बीमारी पर काबू पाने के लिए एक ऐसी टेक्नीक विकसित की है, जिसमें सर्जरी की कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसे लेकर वैज्ञानिकों ने जो शोध किया है, वह 'न्यूरोथेरापेटिक्स' (Neurotherapeutics) जर्नल में प्रकाशित हुआ है। बता दें कि इसके पहले 2015 में वैज्ञानिकों ने जेन थेरेपी का इस्तेमाल करने की कोशिश की थी, जिसमें बीमारी से प्रभावित नर्व सेल्स को उत्तेजित किया जाता था। लेकिन यह थेरेपी ज्यादा कारगर नहीं हो सकी। जैसे बीमारी बढ़ती, सेल्स भी तेजी से नष्ट होने लगते।
ब्रेन इमेजिंग टेक्नोलॉजी से क्या चला पता
जब ब्रेन इमेजिंग टेक्नोलॉजी सामने आई तो वैज्ञानिकों ने पाया कि उनका पहले वाला तरीका ज्यादा कारगर नहीं हो सका, क्योंकि वे जिन खास ब्रेन केमिकल्स को टारगेट करते थे, उससे न्यूरॉन एक्टिव होकर सेल्ल के बीच इंटरएक्शन को बढ़ा देते थे। इससे डोपामाइन नहीं बन पाता था।
दो न्यूरोट्रांसमीटर की है प्रमुख भूमिका
यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स के फार्माकोलॉजी विभाग के प्राध्यापक डॉक्टर इल्से पिएनार और इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के उनके सहयोगियों ने अध्ययन के दौरान ब्रेन में दो प्रमुख न्यूरो ट्रांसमीटर सिस्टम का पता लगाया जो पार्किन्संस बीमारी को बढ़ाने वाले न्यूरॉन पैदा करते हैं और डोपामाइन के स्राव को रोक देते हैं। पार्किन्संस बीमारी पर नियंत्रण करने के लिए ब्रेन में डोपामाइन का पर्याप्त मात्रा में बनना जरूरी है।
क्या कहा शोधकर्ताओं ने
शोधकर्ताओं का कहना है कि उनकी स्टडी से यह पता चला है कि वे कौन-से न्यूरॉन हैं जो डोपामाइन के बनने में बाधा पैदा करते हैं। उनका कहना है कि ब्रेन में नर्व सिस्टम के इंटरएक्शन के बारे में जानकारी मिल जाने से अब इस बीमारी का सफल इलाज जल्दी हो सकेगा। अभी तक इस बीमारी को दवाइयों के जरिए नियंत्रित करने की कोशिश की जाती रही है, लेकिन कोई भी दवाई पांच साल में बेअसर हो जाती है। अब जो स्टडी की गई है, उससे इलाज की ऐसी तकनीक विकसित की जा सकेगी कि बीमारी खत्म हो जाए।