सार
आज कांग्रेस भाजपा की उसी तरह आलोचना करती है, जिस तरह कभी मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की आलोचना की थी। कांग्रेस भाजपा को हिंदू पार्टी और मुस्लिम विरोधी बताती है। एस गुरुमूर्ति पूछते हैं कि यह बदलाव कितना घटिया है।
देश में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। आज जिस तरह की चुनावी चर्चा हो रही है उससे कांग्रेस और भाजपा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच ऐतिहासिक संघर्ष की झलक दिखती है। वर्तमान में कांग्रेस उन बातों को चुनौती दे रही है, जिनका वह कभी समर्थन करती थी। वह ऐसा रुख अपना रही है, जिसका पहले खुद विरोध करती थी। यह राजनीतिक कायापलट वैचारिक धाराओं में बड़े बदलावों का प्रतीक है। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है। इसका लंबा इतिहास है। मौजूदा चुनावी बहसों के पीछे के कारणों को समझने के लिए इस इतिहास को समझना महत्वपूर्ण है।
1969 के बाद हुई कांग्रेस के गिरावट की शुरुआत
तुगलक पत्रिका ने भाजपा के नारे, "कांग्रेस के बिना भारत" को खारिज किया है। पिछले तीन दशकों में कांग्रेस में गिरावट आई है तब भी उसे छोड़ना देश हित में नहीं है। पारिवारिक लाभ के लिए 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा शुरू किए गए विभाजन के बाद से कांग्रेस की राष्ट्रीय पहचान, सिद्धांतों और लोकाचार में गिरावट शुरू हुई। कांग्रेस एक समय राष्ट्रवाद का पर्याय मानी जाती थी। इंदिरा ने कामराज, मोरारजी देसाई और निजलिंगप्पा जैसे दिग्गजों को दरकिनार करते हुए पार्टी पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इससे कांग्रेस ने अपना सार खो दिया।
कांग्रेस ने 1971 के चुनावों में कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन करके अपनी विशिष्टता खो दी। वह राष्ट्रीय मुख्यधारा से दूर हो गई। तुगलक पत्रिका 1969 के विभाजन से प्रेरित कांग्रेस के पतन और द्रमुक के उत्थान को शुरुआत बताती है। कांग्रेस के खिलाफ तुगलक का रुख और मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के लिए समर्थन इसी ऐतिहासिक संदर्भ से उपजा है। 1980 के दशक में कांग्रेस की नीतिगत बदलावों ने इसे मुस्लिम लीग के साथ जोड़ दिया। 2024 के कांग्रेस के घोषणापत्र में भी कांग्रेस पर मुस्लिम लीग की छाप दिखती है।
विकृत होकर मुस्लिम लीग बन गई है कांग्रेस
मुस्लिम लीग ने सबसे पहले एक अलग पहचान का दावा करते हुए मुस्लिम राजनीतिक विचारधारा की वकालत की थी। 1932 में महात्मा गांधी की भूख हड़ताल ने जाति-आधारित आरक्षण के लिए ब्रिटिश सरकार के समर्थन का विरोध किया था। इसके बाद 1937 में अंग्रेजों ने मुसलमानों और भारतीयों के बीच विभाजन को बढ़ावा देते हुए शरिया कानून लागू किया। इससे उत्साहित होकर मुस्लिम लीग ने 1940 में हिंदुओं के साथ रहना अस्वीकार कर दिया और मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग की। उस समय की कांग्रेस ने एकता की वकालत की और हिंदुओं और मुसलमानों को एक समुदाय का हिस्सा बताया।
आज की कांग्रेस मुस्लिम लीग की अलगाववादी विचारधारा के साथ जुड़ी दिख रही है। पहले कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण का विरोध किया था। आज की कांग्रेस ऐसे आरक्षण का वादा करती है। कांग्रेस की कर्नाटक सरकार ने सभी मुसलमानों को ओबीसी वर्ग में शामिल कर आरक्षण दिया है। पहले की कांग्रेस ने केवल अनुसूचित जातियों को प्राथमिकता देते हुए हिंदू, मुस्लिम, सिख और बौद्धों के बीच समानता की वकालत की थी। आज की कांग्रेस का कहना है कि देश की संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का है।
1938 में मुस्लिम लीग की बीरपुर समिति ने कांग्रेस पर हिंदू समर्थक और मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया था। 1986 में शरिया कानून के खिलाफ मुस्लिमों की मांग के आगे झुकते हुए कांग्रेस ने शबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। इसने पता चला कि कांग्रेस मुस्लिम लीग की विचारधारा के करीब जा रही है। इसके बाद कांग्रेस ने राम मंदिर के निर्माण का विरोध किया। यह बदलाव देश और कांग्रेस दोनों के लिए खेदजनक है।
कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर बढ़ गई है कांग्रेस
1969 में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध करने वाले कामराज, मोरारजी और निजलिंगप्पा जैसे नेताओं को समाज-विरोधी और पूंजीवादी-प्रभावित कहकर कांग्रेस को खंडित कर दिया था। शासन चलाने के लिए इंदिरा की सोवियत रूस से प्रभावित कम्युनिस्ट सलाह पर निर्भरता के बारे में बहुत कम जानकारी है। 1971 में उन्होंने संविधान में संशोधन किया। सरकार को उचित मुआवजे के बिना संपत्ति जब्त करने का अधिकार दिया और व्यापक राष्ट्रीयकरण की वकालत की।
इससे बैंकों, कोयला खदानों और बीमा कंपनियों पर सरकार का नियंत्रण हो गया। कांग्रेस कम्युनिस्ट पार्टी का दूसरा रूप बन गई। कांग्रेस कभी कम्युनिस्ट विचारधारा की कट्टर विरोधी थी। वह उन्हीं कम्युनिस्टों जैसा बन गई। 1970 के दशक में कांग्रेस ने साम्यवाद का विरोध किया था। तेलंगाना और केरल में कम्युनिस्ट आंदोलनों पर क्रूर कार्रवाई की थी।
इंदिरा गांधी ने अपने विरोध के लिए कामराज जैसे राष्ट्रवादियों को अमेरिकी एजेंट तक करार दिया। 1990 में सोवियत रूस के पतन ने नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को समाजवाद छोड़ने और पश्चिमी पूंजीवादी आदर्शों को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह और अब मोदी प्रशासन तक की सफल सरकारों ने आर्थिक विकृतियों को सुधारने का प्रयास किया है। इस चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र में देश के संसाधन को एक समान तरीके से बांटने का वादा किया है। इससे दिख रहा है कि कांग्रेस एक बार फिर कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर बढ़ गई है।
जाति आधारित पार्टी बनकर रह गई है कांग्रेस
1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आंदोलन के दौरान जाति-आधारित आरक्षण की मांग की गई थी। उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि देश को जाति के आधार पर नहीं बांटना चाहिए। बोफोर्स घोटाले में घिरने के बाद वह आंदोलन रोकने में विफल रहे। वीपी सिंह की जीत हुई और उत्तरी राज्यों में ओबीसी पार्टियों का उदय हुआ। इसने कांग्रेस के पतन में योगदान दिया। इसके साथ ही राम मंदिर आंदोलन ने कांग्रेस के हिंदू समर्थन को खत्म कर दिया। पार्टी पार्टी दोनों मोर्चों पर कमजोर हो गई। राम मंदिर मुद्दे के कारण हिंदू समर्थन और मंडल आंदोलन के कारण ओबीसी समर्थन खोने के बाद कांग्रेस ने मुस्लिम लीग जैसा रुख अपनाया और किसी भी कीमत पर मुस्लिम वोट बैंक का समर्थन मांगा।
इस रणनीति ने कांग्रेस को 2004 में एक दशक तक सत्ता में रहने में मदद की। इस दौरान बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण की राजनीति के कारण भाजपा का पुनरुत्थान हुआ। 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत हुई। 2019 के चुनावों में कांग्रेस को फिर से हार का सामना करना पड़ा। उसे कट्टरपंथी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते यह स्थिति देखनी पड़ी। 2024 के चुनाव में कांग्रेस ने ओबीसी वोटों को फिर से हासिल करने के लिए जाति जनगणना की वकालत करना शुरू कर दिया।
भाजपा बन गई है पहले जैसी कांग्रेस
भाजपा ने कांग्रेस द्वारा छोड़े गए शून्य को भरना शुरू कर दिया है। कांग्रेस अपनी राष्ट्रवादी जड़ों से हटकर मुस्लिम लीग, कम्युनिस्टों और मंडल पार्टियों की विचारधाराओं की ओर बढ़ गई थी। 1949 में अयोध्या के कांग्रेस विधायक राघव दास ने राम जन्म भूमि बचाव आंदोलन की शुरुआत की थी। वह एक गांधीवादी थे। महात्मा गांधी उन्हें प्यार से "बाबा" राघव दास कहते थे। जब नेहरू के प्रभाव में कांग्रेस ने राम मंदिर का मुद्दा छोड़ दिया तो भाजपा ने अवसर का लाभ उठाया और खुद को राम मंदिर आंदोलन में पूरी तरह से जोड़ लिया। भाजपा ने वंदे मातरम और भारत माता की जय जैसे प्रतीकों को पुनर्जीवित किया। इन्हें कांग्रेस ने वोट-बैंक की राजनीति के लिए दरकिनार कर दिया था। इस तरह भाजपा ने स्वतंत्रता से पहले की कांग्रेस की तरह कमान संभाली और उन प्रतीकों की वकालत की जिनका कांग्रेस ने एक बार जश्न मनाया था, लेकिन बाद में धार्मिक कहकर खारिज कर दिया। आज, कांग्रेस भाजपा की उसी तरह आलोचना करती है, जिस तरह मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की आलोचना की थी। कांग्रेस भाजपा को हिंदू पार्टी और मुस्लिम विरोधी करार देती है। इसी तरह की बातें मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के लिए कहीं थीं।
कांग्रेस के फुल टॉस और मोदी के सिक्सर
ऊपर बताए गए वजहों के चलते पीएम नरेंद्र मोदी आज बड़ी आसानी से कांग्रेस की तुलना मुस्लिम लीग से कर देते हैं। मोदी ने मुस्लिम तुष्टीकरण, जाति और कम्युनिस्ट राजनीति के बारे में राहुल, सैम पित्रोदा और अन्य कांग्रेस नेताओं के रुख पर छक्के मारे। कांग्रेस के नेता जब देश की संपत्ति को समान रूप से बांटने की बात करते हैं तो मोदी कहते हैं कि कांग्रेस उसे मुसलमानों को देना चाहती है। इस तीखी चुनावी बहस में प्रधानमंत्री मोदी और राहुल समेत दोनों पक्षों ने आत्मसंयम की कमी दिखाई है। हम दोनों पक्षों से आत्म-नियंत्रण बनाए रखने और चुनाव समाप्त होने तक सम्मानजनक अभियान चलाने का आग्रह करते हैं।
पाठक के लिए नोट: यह लेख मूल रूप से तुगलक तमिल साप्ताहिक पत्रिका में छपा था। इसका अंग्रेजी में अनुवाद तुगलक डिजिटल द्वारा www.gurumurthy.net के लिए किया गया था। इसे एशियानेट न्यूज नेटवर्क में दोबारा प्रकाशित किया गया है। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।