सार
वर्तमान में गोरखपुर सीएम योगी आदित्यनाथ के गृह जनपद के रूप में जाना जाता है। पर 1970 के दशक में इसी शहर में अपराध की एक नई इबारत लिखी गई। जब, जेपी आंदोलन के समय छात्र नेता सड़कों पर क्रांति की एक नई कहानी लिख रहे थे।
गोरखपुर। वर्तमान में गोरखपुर सीएम योगी आदित्यनाथ के गृह जनपद के रूप में जाना जाता है। पर 1970 के दशक में इसी शहर में अपराध की एक नई इबारत लिखी गई। जब, जेपी आंदोलन के समय छात्र नेता सड़कों पर क्रांति की एक नई कहानी लिख रहे थे। उस समय गोरखपुर के छात्र नेताओं के बीच वर्चस्व स्थापित करने की होड़ मची थी। यह क्या रूख अख्तियार करेगी? किसी को भी इसका अंदाजा तक नहीं था। बहरहाल, यूपी के बाहुबलियों की बात हो और उसमें पंडित हरिशंकर तिवारी का जिक्र न हो तो वह दास्तान पूरी नहीं होगी।
दो छात्र नेताओं के बीच वर्चस्व की जंग
गोरखपुर विश्वविद्यालय के दो छात्र नेताओं बलवंत सिंह और हरिशंकर तिवारी के बीच वर्चस्व को लेकर रार चला करती थी। उस दौर में जाति-पाति की चासनी लोगों के जुबान पर इतनी हावी थी कि सियासत हो या जरायम की दुनिया, लोग उसी चश्मे से देखने के आदी हो चुके थे। हरिशंकर तिवारी और बलवंत सिंह के बीच भी यही जातीय समीकरण थे। इसी वजह से वर्चस्व की यह जंग ब्राह्मण बनाम ठाकुर समीकरण के रूप में जाने जानी लगी। इसी बीच बलवंत सिंह को उनकी ही जाति के वीरेंद्र प्रताप शाही मिल गए। उसके बाद वर्चस्व की यह जंग एक कदम और आगे बढ़ गई।
दोनों गुटों ने खुद को मजबूत करना शुरु कर दिया
फिर दोनों गुटों ने खुद को मजबूत करना शुरु कर दिया। रेलवे के ठेके दोनों के लिए मायने रखते थे। ठेका पट्टी से पैसा आसानी से कमाया जा सकता है। दोनों गुटों को यह भली-भांति पता था। फिर दोनों तरफ से जारी वर्चस्व की जंग ने एक भयानक रूप ले लिया। उस दौर में सरकारी सिस्टम उनके कामों के आड़े नहीं आता था या यूं कहें कि पूरी तरह से फेल हो चुका था। आए दिन गोलियों की तड़तड़ाहट से शहर थर्रा उठता था। दोनों गुटों में ठेकों को लेकर आए दिन विवाद शुरु हो गए। आलम यह है कि गोरखपुर शहर में आज भी रेलवे के ठेकों का जिक्र होते ही लोगों को उस दौर के अपराधों की बरबस याद आ जाती हैं।
शहर तक ही सीमित नहीं रही वर्चस्व की जंग
दो गुटों की लड़ाई सिर्फ गोरखपुर शहर तक ही सीमित नहीं थी। बल्कि यह आसपास के जिलों तक फैल गई। आए दिन खूनी संघर्ष की वारदातें आम थी। यह वो दौर था, जब गोरखपुर में आन-मान-शान के नाम पर दनादन गोलियां चला करती थीं। ऐसी घटनाएं आम थीं। उधर, वीरेंद्र प्रताप शाही को ठाकुर नेता के प्रतीक के रूप में मान लिया गया था। इधर, हरिशंकर तिवारी को ब्राह्मणों के नेता के रूप में और दोनों गैंग की समानान्तर सरकार अरसों तक चली। उनके दरबार में लोग अपने मामले लेकर जाने लगे।