रामविलास पासवान, राजनीति के 'मौसम वैज्ञानिक', 6 प्रधानमंत्रियों के अधीन मंत्री रहे। उन्होंने DSP की नौकरी छोड़ सत्ता में रहकर दलितों की आवाज़ बनना चुना। गठबंधन की बेजोड़ समझ ने उन्हें हमेशा सत्ता के केंद्र में बनाए रखा।

भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान का नाम केवल एक दलित नेता के तौर पर नहीं, बल्कि एक ऐसे कुशल रणनीतिकार के रूप में दर्ज है, जिसे राजनीति का 'सबसे बड़ा मौसम वैज्ञानिक' कहा जाता था। उनके राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने छह अलग-अलग प्रधानमंत्रियों (वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी) के नेतृत्व वाली सरकारों में मंत्री पद संभाला। सवाल यह उठता है कि पासवान में वह कौन सी बेमिसाल सियासी समझ थी, जिसने उन्हें हर बार सत्ता की सबसे मजबूत कुर्सी पर जमकर बैठाए रखा, जबकि उनके दौर में सरकारें अस्थिरता के दौर से गुज़रती रहीं?

ठुकरा दी डीएसपी की नौकरी

पासवान की रणनीति की शुरुआत उनके जीवन के एक मूलभूत चुनाव से होती है। 1968 में उन्होंने बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की परीक्षा पास कर डीएसपी (उप पुलिस अधीक्षक) का पद हासिल किया। एक दलित परिवार के लिए यह गरीबी से बाहर निकलने का सबसे पक्का रास्ता था। लेकिन 1969 में, उन्होंने यह सुरक्षित सरकारी नौकरी ठुकरा दी, क्योंकि उनका मानना था कि उन्हें 'सरकार का नौकर' नहीं, बल्कि 'सरकार' बनना है। यह फैसला बताता है कि वह हाशिए पर रहकर बदलाव लाने के बजाय, सत्ता के केंद्र में रहकर दलितों की आवाज बनना चाहते थे।

12 जनपथ को बनाया आवास

सत्ता के प्रति उनका रुझान उनकी दिल्ली में पसंद की गई जगह से भी झलकता है। 1989 में जब वह केंद्र में मंत्री बने, तो उन्होंने 12 जनपथ को अपना सरकारी आवास बनाया। यह बंगला लुटियंस दिल्ली के सबसे बड़े बंगलों में से एक था, जो प्रधानमंत्री आवास और गांधी परिवार के 10 जनपथ के बिल्कुल बगल में स्थित था। यह महज एक पता नहीं था, यह सत्ता के केंद्र में उनकी स्थायी उपस्थिति का प्रतीक बन गया।

पासवान की राजनीतिक बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा प्रदर्शन 1990 में मंडल कमीशन को लागू करने के दौरान हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की सरकार हिल रही थी और उनके सहयोगी प्रधानमंत्री देवीलाल अलग खेमा तैयार कर रहे थे। इस संकट के बीच, पासवान और शरद यादव की सलाह पर वी.पी. सिंह ने 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया।

पासवान ने तब आत्मविश्वास से कहा था कि, "मंडल कमीशन लागू होने के बाद हमें 20 साल तक सत्ता से कोई नहीं हटा सकता।" भले ही वी.पी. सिंह की सरकार जल्द गिर गई, लेकिन मंडल ने एक नई सामाजिक-राजनीतिक धारा को जन्म दिया, जिससे पासवान हमेशा के लिए सामाजिक न्याय की राजनीति के एक केंद्रीय स्तंभ बन गए। यह उनकी दूरदर्शिता थी कि उन्होंने तात्कालिक सरकारी जीवन को बचाने के बजाय, दीर्घकालिक सामाजिक और राजनीतिक असर पैदा करने वाला कदम उठाया।

गठबंधन की थी बेजोड़ समझ

गठबंधन की राजनीति में उनका तालमेल बेजोड़ था। 1996 के चुनाव में कांग्रेस की वापसी को भांपकर वह संयुक्त मोर्चा सरकार में शामिल हुए। 2002 में उन्होंने गुजरात दंगों के विरोध में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफा दे दिया, नैतिक उच्च आधार लिया, और फिर 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले UPA में शामिल होकर फिर से मंत्री बने। उनका सबसे बड़ा दांव 2014 में आया, जब उन्होंने नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर को पढ़ा और एनडीए में शामिल हो गए।

असल में, पासवान की फिलॉसफी यही थी कि दलितों के लिए वास्तविक बदलाव विधानसभा या सड़क पर नहीं, बल्कि मंत्रालय की मेज पर बैठकर किया जा सकता है। उनके अधूरे सपने, जैसे कि 'रोजगार का अधिकार' (जिसे 15 साल बाद मनरेगा के रूप में कांग्रेस ने पूरा किया), यह साबित करते हैं कि सत्ता में रहने का उनका मकसद केवल पद पाना नहीं था, बल्कि गरीबों और वंचितों के लिए नीतियों को आकार देना भी था। इसी वजह से, उनका राजनीतिक सफर सिद्धांत और सुविधा का एक जटिल मिश्रण रहा, जिसने उन्हें भारत की गठबंधन राजनीति का सबसे विश्वसनीय 'बारोमीटर' बना दिया।