हमारी आत्मा हमारे शरीर, दिमाग और इंद्रियों को नियंत्रित करती है। आत्मा कभी नष्ट नहीं होती है, वह सिर्फ शरीर बदलती रहती है। शरीर नस्वर है, पर आत्मा अमर है। जन्म और मृत्यु सिर्फ आत्मा द्वारा शरीर बदलने की प्रकिया का हिस्सा है।
गीता के आखिरी अध्याय में कृष्ण अर्जुन को सन्यास के बारे में बताते हैं। वे सन्यास और त्याग के बीच का अंतर भी समझाते हैं। सन्यास अपनी इच्छाओं को खत्म कर देना है और त्याग अपने कर्म से मिलने वाले फल को अस्वीकार करना है।
किसी को भी कष्ट न पहुंचाने वाले शब्द बोलना, सत्य बोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द बोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण करते हुए अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।
अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं।
जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही श्रीकृष्ण का परम धाम है॥
यदि कोई इंसान बिना लगाव के सत्वता हासिल कर लेता है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर निकल जाता है।
इस अध्याय में कृष्ण अर्जुन को आत्मा और शरीर के बीच का अंतर समझाते हैं। कृष्ण के अनुसार शरीर एक वस्तु है जिसे आत्मा संचालित करती है।
जो सभी के प्रति द्वेष से मुक्त हैं और हर इंसान के लिए दया और दोस्ती का भाव रखते हैं, वे कृष्ण के प्रिय हैं। ऐसे लोग सभी प्रकार के मोह और अहंकार से मुक्त हैं।
कृष्ण स्वयं को अरबों सिर, नुकीले दांत और हथियारों के साथ प्रकट करते हैं। यह दृश्य काफी डरावने हैं। इन दृश्यों को देखकर अर्जुन जागृत हो उठता है और एक विनम्र भाव धारण कर लेता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि सच्ची मुक्ति जो अमर है अर्थात भगवान के साथ जुड़ जाने में है। वह कर्म को उस क्रिया के रूप में परिभाषित करते हैं, जो दुनिया को परिभाषित करती है।